जरा हटके - नई कविता
वह स्वाद
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अब भी रक्खा है ,
जिव्हा पर वह स्वाद ,
जो था माँ और दादी - नानी के
हाथों में ।
जिव्हा पर वह स्वाद ,
जो था माँ और दादी - नानी के
हाथों में ।
कितने जतन और प्यार से
घट्टी में अपने हाथों से पीसकर गेहूं
बनाती थी आटा
गाते हुए कोई लोकगीत।
पिसता था सिलबट्टे पर अलसुबह
महकता मसाला और
फिर बनता था वह सुस्वादु भोजन
जो अब भी, भुलाये नहीं भूलता है।
घट्टी में अपने हाथों से पीसकर गेहूं
बनाती थी आटा
गाते हुए कोई लोकगीत।
पिसता था सिलबट्टे पर अलसुबह
महकता मसाला और
फिर बनता था वह सुस्वादु भोजन
जो अब भी, भुलाये नहीं भूलता है।
याद है मुझे , जब
मिलकर अडोसन - पड़ोसन
बैठ जाती थीं दुपहरिया में
जाकर किसी के भी घर ,
और बन जाते थे ,बातों ही बातों में
सिवइयां, बड़ी पापड़ ,आचार।
मिलकर अडोसन - पड़ोसन
बैठ जाती थीं दुपहरिया में
जाकर किसी के भी घर ,
और बन जाते थे ,बातों ही बातों में
सिवइयां, बड़ी पापड़ ,आचार।
अब भी याद है मुझे
इनका प्रेम भरा वह स्वाद
जिसमें छिपा होता था
हंसने -हँसाने , सीखने - सिखाने
और मिल - बाँट कर खाने का
कुदरती एहसास ।
इनका प्रेम भरा वह स्वाद
जिसमें छिपा होता था
हंसने -हँसाने , सीखने - सिखाने
और मिल - बाँट कर खाने का
कुदरती एहसास ।
पर अब निगल लिया है इसे
स्वारथ और आपाधापी की
अंधी होड़ ने ,
होकर बाजारबाद से ग्रसित।
स्वारथ और आपाधापी की
अंधी होड़ ने ,
होकर बाजारबाद से ग्रसित।
इसीलिये नहीं देता
उस जमाने की
कोई और बानगी , क्योंकि अब
बदल गया है समय और
बदल गए हैं हम ।
उस जमाने की
कोई और बानगी , क्योंकि अब
बदल गया है समय और
बदल गए हैं हम ।
पर , फिर भी कोशिश तो करें
देने की अगली पीढ़ी को
जीवन के वे विविध स्थाई स्वाद
जो अंकित हैं मन मस्तिष्क में
अब भी हमारे।
देने की अगली पीढ़ी को
जीवन के वे विविध स्थाई स्वाद
जो अंकित हैं मन मस्तिष्क में
अब भी हमारे।
- देवेंन्द्र सोनी, इटारसी।
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