रविवार, 18 जून 2017

फादर्स डे पर

जरा हटके - नई कविता

पिता

किशोर वय में एक दिन
दादू (दादाजी ) ने दुलराते हुए
बताया था मुझे -
तुम्हारी तरह ही थे
तुम्हारे पिता भी ।
बिंदास , बेखबर और अक्खड़ ।

बात - बात पर रूठ जाना
अपनी ही बात मनवाना और
मुँह चिढ़ाकर , हौले से मुस्कुराना
बिलकुल तुम्हारी ही तरह।

तंग आकर कर दी थी मैने (दादू ने )
उनकी शादी , पर तब भी
आया नही कोई उसमें ( मेरे पिता में )
बदलाव , सरपरस्त था न मैं (दादू ) उसका।

पर , यह क्या - जब बना वह
पहली बार तुम्हारा पिता
एक नहीं , अनेक बदलाव देखे उसमें।

अब आने लगा था समय पर घर
रखता था हर जरूरत का ख्याल ।
खो गया था कहीँ उसका बचपना
देखकर तुम्हारा बचपन ।

समझ लिए थे उसने -
एक अच्छे पिता के सभी कर्तव्य
जिन्हें पूरा करने में जुट गया था
रात - दिन , जी - जान से ।

यही है नियति का चक्र
पिता की सरपरस्ती में
बीत जाता है हंसते - खेलते बचपन।

फिर , बनते हैं जब हम पिता
होता है जिम्मेदारी का बोध
निभाते हैं जिसे जीवन पर्यंत
बिना किसी स्वार्थ के ।

अब न दादू हैं , न पिता
है तो बस उनकी यादें और प्रेरणा
जो देती हैं हर पल मुझे, सबक
एक अच्छे पिता बनने का ,
उन्हीं की तरह ।

          - देवेंन्द्र सोनी , इटारसी।


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