मैं तन्हा बैठा था बाग मैं...की ये पूर्वाई चली आई मेरी ओर... और फिर ये हुआ... छू कर मेरे गाल को ये हवा कुछ कह गई... फिर चली जाने कहाँ मुझको यूँ तन्हा छोड कर.... मैंने पूछा रुक तो जा, बैठ मेरे पास तू... जाना कहीं नही तुझे, फिर ये चंचलपन कैसा तुझमें है | तू रुकती क्यूँ नही,पलभर ठहरती क्यूँ नही... मैं तो ये भी हू जनता की, ये वतन तेरा नही... फिर रुक कर पास आई वो मेरे... ओर कहने लगी.. ये बात तो बता, मैं ठहरी तो तुझे क्या मिल जाएगा... हर शक्स जो जिंदा है .. तड़प कर मर जाएगा... क्यूँ चाहता है तू की मैं ठहर जाउँ यहीं, इस खोफ़नाक जुर्म का जिम्मा तेरे सर पर आएगा... ए शायर इतना समझ ... तू भी नही जी पाएगा... फिर क्या तू स्वर्ग की अप्सराओं से बतीयाएगा... स्वर्ग क्या है ,तुझे नर्क भी मिल ना पाएगा... मैं नही था जनता, माफ़ करना तू मुझे ... अपनी नज़रो मैं अब ओर गिरा ना मुझे... पर, इस हक़ीकत से तू भी कहाँ अंजान है, मैं भी कहाँ अंजान हूँ.. सच कहती है मा मेरी, की मैं अभी नादान हूँ.. इस जिंदगी की जंग से, मैं थोडा परेशन हूँ... माफ़ करदे तू मुझे ...क्यूंकी हवा के मुक़द्दर मैं ही नहीं है ठहरना... .... चलो चलता हूँ... घर वापस... ग़लत पंगे लेलिए | नमस्ते... - संतोष कुमार प्रजापति
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