बुधवार, 28 जून 2017

लायक

जरा हटके - नई कविता
लायक
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कभी संतोष तो कभी दर्द
झलकता है
बूढ़े हो चले माँ - पिता की आँखों में ,
जिसे दबाने का
करते हैं वे भरसक प्रयत्न
थोथी मुस्कुराहट के तले ।

सालता है उन्हें ,
कभी कभी बच्चों को
लायक बना देने का दंश।

इसी लायकी के चलते
दूर बस गए हैं बच्चे उनसे
मत भिन्नता और
कमाने की चाह में।

उभरता है संतोष भी कभी कभी
कि बना दिया उन्होंने
अपने बच्चों को इतना लायक
करने लगे हैं वे अब तर्क - वितर्क
खड़े होकर पैरों पर अपने।

इसी दर्द और संतोष का लेकर सहारा
देते रहते हैं सांत्वना
बूढ़े दम्पति इक - दूजे को
चलाने के लिए अपनी रंगहीन बेढब जिंदगी।

मानते भी हैं वे , कि -
जरूरी है दुनिया में लायक होना।

पर चाहते हैं यह भी कि -
छूटे न संस्कार , रूठे न बच्चे
दूर होकर भी हों इतने पास, कि -
मंद होती धड़कनों की
सुन सकें आवाज।
कभी भी ..कहीँ भी ।

सही भी है यह सोचना उनका ।
रखना होगा हर बच्चे को
बूढ़े माता पिता का ध्यान
बनने के लिए नजरों में उनकी
सही अर्थों में " लायक " ।

कोशिश करेंगे न हम -
दुनिया की नहीं ,
उनकी नजरों में
बनने की - लायक !
      - देवेंन्द्र सोनी , इटारसी।



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