शुक्रवार, 16 जून 2017

नई कविता

जरा हटके -  एक कड़वी कविता
गहराई से सोचें और 
न करें , बेटी ! बेटी !!
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निकलें हम थोड़ा 
मन की गहराई से 
और अब हर समय
न करें , 
बेटी ! बेटी !! बेटी !!!

हाँ , माना कि 
बेटियां 
हर उपमा से परे 
अनुपम हैं ।


माना कि - 
वे बेटों से ज्यादा
संवेदनशील और 
निपुण भी हैं।

माना कि उन्होंने
हर क्षेत्र में द्विगुणित 
सफलता पाई है

माना कि वे - 
दो कुलों की लाज ,
अभिमान होती हैं , 
और यह भी कि वे
सृष्टि की जननी है।

पर क्या ये सारे गुण
अब बचे हैं , हर बेटी में ?


यदि हां तो फिर क्यों 
हर कहीं शर्मसार होते
दिखते हैं माता -पिता 
और परिवार ?

क्यों संस्कारों को लांघते भी
दिखती हैं बेटियां ?

स्वतंत्र माहौल और परिजन 
के विश्वास को रौंदते हुए
क्यों गिरती हैं ऐसे अंधे कुएं में 
जहां से वे 
फिर निकल ही न पाएं ?


और किसी तरह निकल भी जाएँ तो
बनती हैं संत्रास का कारण 
एक बार फिर -
अपने उन्हीं परिजनों का 
जो टूट चुके होते हैं अंदर से 
कहीँ गहरे तक , पहले ही

नहीं कहता कि होती ही है
हर बेटी ऐसी , 
पर होतीं तो हैं ,
ऐसी भी बेटियां !

इसलिए जरूरी है 
उतना ही करें - बेटी , बेटी 
जो उन्हें भटकने न दे 
सफल और संस्कारित
जीवन की राह से कभी ।

और न हो कोई शर्मिंदा
हर कहीं - हर कभी 
दोनों ही कुल में 
या समाज में ।

बेटियों , तुम्हे भी
समझना होगा यह सब 
क्योंकि तुम हमारी ही नहीं 
सृष्टि की भी लाज और अभिमान हो ।

कहता हूँ इसीलिए यह कड़वी बात
निकलें हम थोड़ा 
मन की गहराई से 
और अब हर समय 
न करें - बेटी ! बेटी !!

  - देवेंन्द्र सोनी , प्रधान संपादक
             युवा प्रवर्तक , इटारसी ।
             9827624219


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