जरा हटके - एक कड़वी कविता
गहराई से सोचें और
न करें , बेटी ! बेटी !!
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निकलें हम थोड़ा
मन की गहराई से
और अब हर समय
न करें ,
बेटी ! बेटी !! बेटी !!!
हाँ , माना कि
बेटियां
हर उपमा से परे
अनुपम हैं ।
माना कि -
वे बेटों से ज्यादा
संवेदनशील और
निपुण भी हैं।
माना कि उन्होंने
हर क्षेत्र में द्विगुणित
सफलता पाई है ।
माना कि वे -
दो कुलों की लाज ,
अभिमान होती हैं ,
और यह भी कि वे
सृष्टि की जननी है।
पर क्या ये सारे गुण
अब बचे हैं , हर बेटी में ?
यदि हां तो फिर क्यों
हर कहीं शर्मसार होते
दिखते हैं माता -पिता
और परिवार ?
क्यों संस्कारों को लांघते भी
दिखती हैं बेटियां ?
स्वतंत्र माहौल और परिजन
के विश्वास को रौंदते हुए
क्यों गिरती हैं ऐसे अंधे कुएं में
जहां से वे
फिर निकल ही न पाएं ?
और किसी तरह निकल भी जाएँ तो
बनती हैं संत्रास का कारण
एक बार फिर -
अपने उन्हीं परिजनों का
जो टूट चुके होते हैं अंदर से
कहीँ गहरे तक , पहले ही ।
नहीं कहता कि होती ही है
हर बेटी ऐसी ,
पर होतीं तो हैं ,
ऐसी भी बेटियां !
इसलिए जरूरी है
उतना ही करें - बेटी , बेटी
जो उन्हें भटकने न दे
सफल और संस्कारित
जीवन की राह से कभी ।
और न हो कोई शर्मिंदा
हर कहीं - हर कभी
दोनों ही कुल में
या समाज में ।
बेटियों , तुम्हे भी
समझना होगा यह सब
क्योंकि तुम हमारी ही नहीं
सृष्टि की भी लाज और अभिमान हो ।
कहता हूँ इसीलिए यह कड़वी बात
निकलें हम थोड़ा
मन की गहराई से
और अब हर समय
न करें - बेटी ! बेटी !!
- देवेंन्द्र सोनी , प्रधान संपादक
युवा प्रवर्तक , इटारसी ।
9827624219
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