वक्त हँस रहा हैं, क्यूँकि
दिल दम तोड़ती साँसे भर रहा हैं।
दिन,पहर और पहर रात में ढल रहा हैं, क्यूँकि
वक्त का पहिया बिन रुकावट के सदा से चल रहा हैं।
वक्त चुभन में बदल रहा हैं, क्यूँकि
परिस्थितियों के हेर-फेर में इंसान पिस रहा हैं।
सुबह,दोपहर और दोपहर साँझ का रूप धर रहा हैं, क्यूँकि
पृथ्वी का चक्र अपनी गति से बढ़ रहा हैं।
वक्त याद नहीं यादों में वक्त गुजर रहा हैं, क्यूँकि
हर कोई यहाँ समय ना होने का गान कर रहा हैं।
कलम की नोंक पे भी ये वक्त ही थिरक रहा हैं, क्यूँकि
अपराधी को निर्दोष और निर्दोष को अपराधी ये रिश्वती रूप कर रहा हैं।
वक्त का वाणी पर भी अतुलनीय प्रभाव पड़ रहा हैं, क्यूँकि
संस्कारों का धारण अब कलयुगी युग में अदृश्य होता प्रतीत पड़ रहा हैं।
मूल्य किसी का कोई भी समझने को बेकार समझ रहा हैं, क्यूँकि
अहंकारी का आगाज जोरों से दम भर रहा हैं।
वक्त अपनी मनमानी से नहीं लोगों के कर्मों से फिर रहा हैं, क्यूँकि
जमाना अपनों की गर्दन पे ही छुरी पैनी कर रहा हैं।
देख कर अकृत्य जग में मौन सम्मति से समाज पल रहा हैं, क्यूँकि
वक्त इंसानियत नहीं हैवानियत के हाथों बिक रहा हैं।
वक्त फरमाइशें नहीं हुकुम का आगाज करता रहा हैं,क्यूँकि
आत्मविश्वासी(वक्त) जगत से ही नहीं लोकों से भी जीतता रहा हैं।
हर आँख का नीर नीरसता की धार भर रहा हैं, क्यूँकि
वक्त, अंधे कानून के आदेशों और निर्देशों पे चल रहा हैं।
वक्त अपनी ही बिसात पर चलने से डर रहा हैं, क्यूँकि
वक्त,वक्त की चालों(नापाक इरादे) पर अपनी मौत लिख रहा हैं।
वक्त हँस रहा हैं , क्यूँकि
दिल दम तोड़ती साँसे भर रहा हैं।
(To be continued....in Next Part )
THANK YOU.....
Written By Ritika {Preeti} Samadhiya... Please Try To Be A Good Human Being....✍
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