बुधवार, 21 जून 2017

किसान


जरा हटके - नई कविता - किसान

दरअसल
बदले हुए जमाने में मुझे
किसान की परिभाषा
समझ नही आती है ।
जो तस्वीर बसी है आँखों में
अब वह मेल नहीं खाती है।

खेतों में अलसुबह हल चलाता
बोनी , बखरनी कर पसीना बहाता
लहलहाती फसल देख हर्षाता
किसान अब दिखाई नही देता ।

अब दिखता है जो
वो मजदूर होता है
किसान बना सेठ तो
कर्जा लेकर घर में सोता है।

इस कर्ज से बनाता है वह
आलिशान कोठी ,
खरीदता है वाहन और
दिखाता है अपना जलवा।

सरकारी लाभ की चाह में
खरीदकर जमीनें अब
अन्नदाता से बन गया है
वह अन्न उत्पादक  ।

लाभ और कर्जे से दूर ,
असली किसान तो
आज भी सीमित है
अपना भर ( अपने लिए ) उगाने में
पता भी नहीं उसे
योजनाओं के बारे में ।

विसंगति ही है यह,
जिसे मिटाना होगा।
किसान को सिर्फ
किसान बनना - बनाना होगा । 

       - देवेंन्द्र सोनी, इटारसी।



Hit Like If You Like The Post.....


Share On Google.....

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

your Comment will encourage us......

ब्लॉग आर्काइव

Popular Posts