जरा हटके - नई कविता - किसान
दरअसल
बदले हुए जमाने में मुझे
किसान की परिभाषा
समझ नही आती है ।
जो तस्वीर बसी है आँखों में
अब वह मेल नहीं खाती है।
बदले हुए जमाने में मुझे
किसान की परिभाषा
समझ नही आती है ।
जो तस्वीर बसी है आँखों में
अब वह मेल नहीं खाती है।
खेतों में अलसुबह हल चलाता
बोनी , बखरनी कर पसीना बहाता
लहलहाती फसल देख हर्षाता
किसान अब दिखाई नही देता ।
बोनी , बखरनी कर पसीना बहाता
लहलहाती फसल देख हर्षाता
किसान अब दिखाई नही देता ।
अब दिखता है जो
वो मजदूर होता है
किसान बना सेठ तो
कर्जा लेकर घर में सोता है।
वो मजदूर होता है
किसान बना सेठ तो
कर्जा लेकर घर में सोता है।
इस कर्ज से बनाता है वह
आलिशान कोठी ,
खरीदता है वाहन और
दिखाता है अपना जलवा।
आलिशान कोठी ,
खरीदता है वाहन और
दिखाता है अपना जलवा।
सरकारी लाभ की चाह में
खरीदकर जमीनें अब
अन्नदाता से बन गया है
वह अन्न उत्पादक ।
खरीदकर जमीनें अब
अन्नदाता से बन गया है
वह अन्न उत्पादक ।
लाभ और कर्जे से दूर ,
असली किसान तो
आज भी सीमित है
अपना भर ( अपने लिए ) उगाने में
पता भी नहीं उसे
योजनाओं के बारे में ।
असली किसान तो
आज भी सीमित है
अपना भर ( अपने लिए ) उगाने में
पता भी नहीं उसे
योजनाओं के बारे में ।
विसंगति ही है यह,
जिसे मिटाना होगा।
किसान को सिर्फ
किसान बनना - बनाना होगा ।
जिसे मिटाना होगा।
किसान को सिर्फ
किसान बनना - बनाना होगा ।
- देवेंन्द्र सोनी, इटारसी।
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