शुक्रवार, 30 जून 2017

नाराजगी


जरा हटके - नई कविता
नाराजगी

रिवाज़ सा हो गया है आजकल
बात- बेबात पर नाराज रहने का।

यह नाराजगी होती है ,
कभी अच्छी तो
कभी देती है पीड़ा अधिक
पर मैं इसे हमेशा सुखद ही
मानता हूँ ।

चलता है इससे मन में
रूठने और मनाने का द्वंद
जो उपजाता है -अंततः करुणा
परिणित होना ही होता है जिसे
फिर आनन्ददायी प्रेम में।

रहती है जब तक यह
सीमा में अपनी
देती है सीख कई , नयी-नयी
पर तोड़े जब यह मर्यादा
मिलती है फिर पीड़ा घनी।

चुनना हमको ही है , इनमें से
नाराजगी का कोई एक - रूप
सुख से रहना है या
रहना है फिर दुखी सदा ।

अटल सत्य है यह तो
रहना है ज़िंदा जब तक
छूट सकती नही हमारे
स्वभाव से नाराजगी ।

होती है यह ज्यादा कभी तो
खुद ही हो भी जाती है कम
समझ लें इसको थोड़ा सा
और खुशहाल रहें हरदम।

        - देवेंन्द्र सोनी, इटारसी


Please Confirm your like



Hit Like If You Like The Post.....


Share On Google.....

मेरा इश्क

मेरा इश्क भी मुकम्मल होता, अगर
 तू मुझे हाँसिल नहीं
मेरे इश्क में वफादार होता ।


Written By Ritika{Preeti} Samadhiya.... Please Try To Be A Good Human Being....✍




Hit Like If You Like The Post.....


Share On Google.....

गुरुवार, 29 जून 2017

मोबाइल

जरा हटके - नई कविता
मोबाइल

जानते हैं हम सभी
मोबाइल का अर्थ -
फिर भी -चंचल ,अस्थिर, गतिशील,
भ्रमणकारी और हर कहीं होना उपलब्ध
इसके विशेष गुण होते हैं ।

मोबाइल के बिना अब
अधूरा लगता है संसार ।
बेचैन हो जाते हैं हम जरा में
मोबाइल के इधर -उधर होते ही।

पर कहते हैं न - मिलता ही है
जैसी संगत वैसा फल ।
फायदे हैं यदि अनेक , मोबाइल के
तो बुरी है लत भी इसकी।

ज्यादातर हो रहा है 
दुरूपयोग ही इसका
समाते जा रहे हैं हमारे अंदर
नामानुरूप अवगुण भी इसके।

बना दिया है मोबाइल ने हमको भी
अस्थिर, चंचल और लती ।
बिगाड़ दी है इसने दिनचर्या हमारी
और छीन लिया है सोते -जागते
मन का चैन ।

ऐसा भी नहीं कि अवगुणी ही है यह
सुविधाएं भी देता है अनेक
अपने गुणों में भी परिपूर्ण है यह
बशर्ते करें हम इसका सदुपयोग।

नई सदी की क्रांति है मोबाइल
पर समझ लें हम
परिणामों को भी इसके
जरूरी है यह भी ।

         - देवेंन्द्र सोनी, इटारसी।



Hit Like If You Like The Post.....


Share On Google.....

बुधवार, 28 जून 2017

लायक

जरा हटके - नई कविता
लायक
--------
कभी संतोष तो कभी दर्द
झलकता है
बूढ़े हो चले माँ - पिता की आँखों में ,
जिसे दबाने का
करते हैं वे भरसक प्रयत्न
थोथी मुस्कुराहट के तले ।

सालता है उन्हें ,
कभी कभी बच्चों को
लायक बना देने का दंश।

इसी लायकी के चलते
दूर बस गए हैं बच्चे उनसे
मत भिन्नता और
कमाने की चाह में।

उभरता है संतोष भी कभी कभी
कि बना दिया उन्होंने
अपने बच्चों को इतना लायक
करने लगे हैं वे अब तर्क - वितर्क
खड़े होकर पैरों पर अपने।

इसी दर्द और संतोष का लेकर सहारा
देते रहते हैं सांत्वना
बूढ़े दम्पति इक - दूजे को
चलाने के लिए अपनी रंगहीन बेढब जिंदगी।

मानते भी हैं वे , कि -
जरूरी है दुनिया में लायक होना।

पर चाहते हैं यह भी कि -
छूटे न संस्कार , रूठे न बच्चे
दूर होकर भी हों इतने पास, कि -
मंद होती धड़कनों की
सुन सकें आवाज।
कभी भी ..कहीँ भी ।

सही भी है यह सोचना उनका ।
रखना होगा हर बच्चे को
बूढ़े माता पिता का ध्यान
बनने के लिए नजरों में उनकी
सही अर्थों में " लायक " ।

कोशिश करेंगे न हम -
दुनिया की नहीं ,
उनकी नजरों में
बनने की - लायक !
      - देवेंन्द्र सोनी , इटारसी।



                                               Please Comment and share
                                        

Hit Like If You Like The Post.....


Share On Google.....

खुदा की हंसती मूरत - माँ


माँ चन्द्रमा सी शीतलता लिए हुए है
वो सूरज सा उसका तेज भी मेरे  लिए है
मेरे ख्वाबो के लिए तारा बन टूटती है
खुदा की हंसती मूरत मेरे लिए तू ही है। 


माँ फूल जितनी कोमलता लिए हुए है

वो पहाड जितनी सख्त भी मेरे लिए है

मेरी हर गलती पर खुद को ही दोषी मानती है

खुदा की हंसती मूरत मेरे लिए तू ही है। 
माँ धरती पर चाँद की चाँदनी लिए हुए है
वो आसमान सा बडा आंचल भी मेरे लिए है
मेरी चोट पर आंसू संग मरहम लगाती है
खुदा की हंसती मूरत मेरे लिए तू ही है। 


माँ सूखे मे बारिश की तरह जिंदगी बांटती है

वो मुझपे आने वाले हर तूफान को रोकती है

मेरे बिन बोले जो हर बात समझती है

खुदा की हंसती मूरत मेरे लिए तू ही है। 


- Anupama Verma

                               

Hit Like If You Like The Post.....


Share On Google.....

राजनीति

वो कौन है जो कौम को बदनाम कर रहे
इंसानियत के सर पे गुनाह का ताज रख रहे। 
वो ना हिन्दू है और ना ही मुसलमान ही है वो

इंसानियत को रोज जो जर्जर नीलम कर रहे। 

चढ़ा दो उनको सूली पे काट हाथ पैर
बहन बेटियो पे जुल्म जो सारे आम कर रहे। 
कुर्ता जिनको प्यार है तिरंगे के दाम से

ऐसे नेताओं को भगाओ इस  जहान से। 

राष्ट्र को बेच बेच जो नित है खा रहे
झुटे भाषणों से है वो दिल बहला रहे।
देश उनको प्यारा है हर पल दिखा रहे

आवाम को जो भूखे रातो सुला रहे। 

देश मे कमी नही जरा भी अन्न धन की
किसानों को जो भूखा फांसी चढ़ा रहे
ये इतने सच्चे ईमानदार है मुझे आता नही समझ

यहाँ पेट भरना है मुश्किल इनके खाते बढ़े जा रहे

।। प्रदीप सुमनाक्षर ।।


Read more by प्रदीप सुमनाक्षर : दो कदम , वो

Please Comment and share
                                  

Hit Like If You Like The Post.....


Share On Google.....

मंगलवार, 27 जून 2017

वह स्वाद



जरा हटके - नई कविता
वह स्वाद
----------
अब भी रक्खा है ,
जिव्हा पर वह स्वाद ,
जो था माँ और दादी - नानी के
हाथों में ।
कितने जतन और प्यार से
घट्टी में अपने हाथों से पीसकर गेहूं
बनाती थी आटा
गाते हुए कोई लोकगीत।
पिसता था सिलबट्टे पर अलसुबह
महकता मसाला और
फिर बनता था वह सुस्वादु भोजन
जो अब भी, भुलाये नहीं भूलता है।
याद है मुझे , जब
मिलकर अडोसन - पड़ोसन
बैठ जाती थीं दुपहरिया में
जाकर किसी के भी घर ,
और बन जाते थे ,बातों ही बातों में
सिवइयां, बड़ी पापड़ ,आचार।
अब भी याद है मुझे
इनका प्रेम भरा वह स्वाद
जिसमें छिपा होता था
हंसने -हँसाने , सीखने - सिखाने
और मिल - बाँट कर खाने का
कुदरती एहसास ।
पर अब निगल लिया है इसे
स्वारथ और आपाधापी की
अंधी होड़ ने ,
होकर बाजारबाद से ग्रसित।
इसीलिये नहीं देता 
उस जमाने की 
कोई और बानगी , क्योंकि अब
बदल गया है समय और 
बदल गए हैं हम ।
पर , फिर भी कोशिश तो करें
देने की अगली पीढ़ी को
जीवन के वे विविध स्थाई स्वाद
जो अंकित हैं मन मस्तिष्क में
अब भी हमारे। 

    - देवेंन्द्र सोनी, इटारसी।

                               

Hit Like If You Like The Post.....


Share On Google.....

....मैं फिर अकेला रह गया....

 
जिंदगी की राह में यादों का मेला रह गया
कल भी था अकेला, मैं आज फिर अकेला रह गया। 

अपनी अहमियत कुछ लोगो को बतलाने में रह गया
कुछ नए चहरों को लुभाने मैं रह गया...

कल जाने क्या-क्या मैं अपने दोस्तो से कह गया
मेरे गम का बादल भी यूँ मुझमे सिमट कर रह गया..

जिंदगी की राह में यादो का मेला रह गया
कल भी था अकेला, मैं आज फिर अकेला रह गया

मन मेरा था जो समंदर की लहरों सा तैरता 
वो अब वीराना रेगिस्तान बन कर रह गया...

एक तख्त था जिसपर मैं बैठकर इस जहान को देखता
अब तो बस उस तख्त का गुलाम बन कर रह गया...

कहा था किसी अपने से क्या साथ देगा तू मेरा
वो हमसफ़र भी मुझसे अलविदा कह गया...

जिंदगी की राह में यादो का मेला रह गया
कल भी था अकेला, मैं आज फिर अकेला रह गया
.. मैं फिर अकेला रह गया...

                   संतोष कुमार
(प्रजापति) 
Read More by संतोष कुमार:तेरे पास भी तो है , हवा... एक सीख..
Please comment and share
                                   

Hit Like If You Like The Post.....


Share On Google.....

कुछ अलग ही है बात तेरी

सुबह  तेरी, रात तेरी 
और दिन भर बात तेरी 
चाहता तो हु यादो को भी
पर कुछ अलग ही है बात तेरी... 
चाहत यही  दिन रात मेरी 
मिलने की बने तुमसे बात मेरी
कुछ ऐसे मिल जाए हम
मैं तेरा सावन,  तू बरसात मेरी 
कुछ अलग ही है बात तेरी... 
जब मिलते है तो होठ सिले
कुछ भी न हो पाए बात मेरी
बस यूँही आँखों से आँखे  मिले 
क्या इससे भली थी याद तेरी 
 कुछ अलग ही है बात तेरी ...

- Satish Sikhwal 


Please comment and share


Hit Like If You Like The Post.....


Share On Google.....

सोमवार, 26 जून 2017

हैं समान दोनों ही


जरा हटके - नई कविता
हैं समान दोनों ही
----------------------
कोई रिश्ता नहीं था
धरा पर उतरे थे जब
दो मानव
एक था आदम और
एक थी ईब ।
खाकर कोई फल
जागा था उनमे प्रेम
जिससे फलित होने लगी संतति ।

अरण्य में घूमते -फिरते
कंद-मूल और जानवर खाकर
करते थे गुजारा , रहते थे मस्त
न था तब नारीवाद और
न ही था कोई पुरुष वाद।

आई जब दर्द की घड़ी ईब पर
मर्द ही बना सहारा
ले ली उसने जिम्मेदारी सारी
पति और पिता के रूप में।
जागा उसमें भी तभी - 
सुरक्षा ,अधिकार, अपनत्व और
लालन-पालन का भाव ।
तब से अब तक कर रहा है
मर्द , निर्वहन इनका ,
पति , पिता और भाई बनकर।

स्त्री ने भी समझा था इसे -
मर्द की छत्र-छाया में ही है
उसकी सुरक्षा और कल्याण ।
बाँट लिये फिर समझ से अपनी
दोनों ने ही प्रकृतिजन्य काम ।
कम नही थे तब भी 
और कम नही हैं अब भी
दोनो ही एक - दूजे से।

पर , फर्क बनाया जो प्रकृति ने-
समझना तो होगा ही उसे 
चलना भी होगा अनुरूप उसी के

जो होकर तय पहले से आया है ।

हैं बराबर दोनों ही ,
पर काम है अलग - अलग
मान लेंगे जिस दिन यह हम
मिट जाएगा व्याप्त भरम ।

होगा फिर खुशहाल जीवन
मिट जाएगा भेद-भाव ।
ना रहेगा नारीवाद और
ना बचेगा पुरुष वाद ।
करना होगा मिलकर ही यह
हम सबको ,बचाने अपना घर।
बचाने अपना हर रिश्ता ।

        
   - देवेंन्द्र सोनी, इटारसी।

Read more by  देवेंन्द्र सोनी: नई कविता  , पिता का संदेश  ,फादर्स डे पर,  बचपन के वो पल सुहाने , आईना  , किसान , वर्षा की फुहार  , भोर 


            Please comment and share                            

                                 

Hit Like If You Like The Post.....


Share On Google.....

ईद मुबारक


अजय सिंह ताज... 7837304195

ईद मुबारक आप सब दोस्तों को

 मैं एक हिंदू लड़का हूं, और सब धर्मों को मानता हूं , ईद, दीपावली, क्रिसमस , गुरु पर्व दिवस, सब एक ही तरह की शिक्षा देते हैं / हमसे सबको मिल जुल कर रहना चाहिए, सब हिंदू ,मुस्लिम, सिख ,इसाई धर्मों के लोग एक ही हैं /

 ईद त्यौहार का सही मतलब यह है कि प्यार से मिलजुल कर रहना, एक दूसरे से सारे गिले-शिकवे दूर कर के, सब झगड़े दूर करके मिलजुल कर रहना, अच्छा काम करना , लोगों की भलाई करना , सबसे मीठा बोलना , नेकी के रास्ते चलना, सबसे ईमानदार रहना ......

Hit Like If You Like The Post.....


Share On Google.....

रविवार, 25 जून 2017

दो कदम

दो कदम तुम चलो
दो कदम हम चले
शिकवे दूर हो ना हो
आओ फिर से हम मीले गले। 

कोई नही है सम्पूर्ण जग में
इस बात को दिल मे धरे
भूल कर एक दूजे के दोष
आओ फिर से हम मीले गले। 

कुछ मैं , कुछ तुम अपनी कहो
किसी बात पे रूठे किसी पे लडे
पर प्यार के क्षितिज पे खड़े हो
आओ फिर से हम मीले गले। 

जरूरी है उल्फत में झगड़े भी
रूठना मनाना औऱ लफड़े भी
चलो भूल सब  प्यार बढ़ाये
आओ फिर से हम गले मिल जाये। 

ऐसा है अब नखरे ना  दिखा
मुँह को इस तरह न बना
सब भूल आया पास तेरे
बांहे फैला और गले लगा
आ, आओ ना, मेरे क़रीब आ। 

।।प्रदीप सुमनाक्षर।।

Please comment and share


Hit Like If You Like The Post.....


Share On Google.....

वो

सितारों में वो आफताब सी है
सच उसकी मुहब्बत लाजवाब सी है

गुलों में वो गुलाब सी है
सच उसकी अदायें बेमिसाल सी है

ऋतुओं में वो बहार सी है
सच उसमें कारीगरी कमाल सी है

वफाओ में वो बेहिसाब सी है
सच मुझे वो नमाज सी है

।। प्रदीप सुमनाक्षर।।


Hit Like If You Like The Post.....


Share On Google.....

मैं और मेरा चरित्र




खुद को छिपाता हूं मैं

जो नहीं हूं वो दिखता हूं मैं 

सबने देखा है हँसता चेहरा मेरा 

दिल के दर्द बहुत छुपाता हूं मैं। 


दिखाता है आईना, चित्र में चरित्र मेरा,  

पर असली चेहरे से, इसे छिपाता हूं मैं, 

सोचता हूं, क्या खास है मेरे नकली चेहरे में,

जो उस पर इतना इतराता हूं मैं, 

सोचता हूं क्या कमी है मेरे असली चेहरे में,

जो उस पर इतना घबराता हूं मैं। 


कुछ कमियां, कुछ अरमान है मेरे, 

जो नकली चेहरे से छुपता हूं मैं, 

मैं सिर्फ "मैं" नहीं रहता, 

फिर भी नकली चेहरे पर इतराता हूं मैं। 


नहीं छिपाता मेरे दुःख-दर्दों को, इसलिए

असली चेहरे से घबराता हूं मैं, 

सबने देखा है हँसता चेहरा मेरा, पर

दिल के दर्द बहुत छुपाता हूं मैं। 


अक्सर टोकता है आइना मुझको, की 

तेरे असली चेहरे को जानता हूं मैं, 

अक्सर रोकता हूं मेरे "मैं" को मुझसे मिलने से, 

पर मेरी इस नाकामयाबी को जानता हूं मैं। 


मेरे हर नए चेहरे पर इतराता हूं मैं,

क्योंकि, मेरे "मैं" से घबराता हूं मैं। 

                                      

Hit Like If You Like The Post.....


Share On Google.....

ब्लॉग आर्काइव

Popular Posts