मंगलवार, 14 नवंबर 2017

बचपन के वो पल सुहाने



जरा हटके - नई कविता 

याद आते हैं , दिन पुराने 
बचपन के वो खेल - तमाशे
थे कितने वे पल सुहाने । 

लुका - छिपी खेलते - खेलते
खो - खो में खो जाना
गिल्ली हो या गेंद लपकने
जी भर दौड़ लगाना ।

लँगड़ी , पिट्ठू या कबड्डी 
रोज ही मन ललचाते थे 
इतने पर भी लगे अधूरा , तो
दंड - बैठक खूब लगाते थे । 

जाने कितनी है यादें , जो
भूली बिसरी सी लगती है ।

पाठशाला से मिली जो शिक्षा
आज नहीं बिसराती है।
जीवन में पल - पल , अब भी 
काम वही आती है । 

बीता समय , बीती बातें 
याद बहुत आती हैं ।

दिखते नहीं अब खेल पुराने
बदल गए हैं रिश्तों के माने
मस्ती के दिन अब हुए हवा
जीवन के ये कैसे ताने - बाने ।

परियों की वे कथाएं ,
दादी - नानी जो सुनाती थी ।
छिपे मर्म उनमे जो रहते
अंतस में चिपकाती थीं । 

ज्ञानी - ध्यानी ,वीर - महापुरुषों से
नाना - दादा मिलवाते थे ।
बातों ही बातों में , वे 
जीवन का पाठ पढ़ाते थे।

बीता समय और बीती बातें
अब याद बहुत आतीं हैं ।

हमने जो देखा - समझा 
साथ बड़ों के रहकर 
सिखा न सकते अब हम
बच्चों को सब कुछ भी देकर ।

नया जमाना , नई बातें 
कम ही हर्षाती हैं ।
रह - रह कर बीते दिनों की
याद बहुत आती है ।

              - देवेंन्द्र सोनी , इटारसी।

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