जरा हटके - लेख -
आधुनिक जीवन शैली में रिश्तों की सार्थकता
जीवन शैली पुरातन हो या आधुनिक, रिश्तों की सार्थकता पर प्रश्न सदैव उठते रहे हैं । जहां रिश्ते होंगे वहां प्यार , दुलार , मनुहार भी होगा और मन मुटाव या झगड़े भी होंगे ही । मेरी नजर में रिश्तों का स्वरूप सदैव स्थाई होता है लेकिन उसका महत्व कम या ज्यादा होता रहता है । यहीं से उनकी सार्थकता या निरर्थकता का आंकलन होता है।
रिश्ते दो तरह के होते हैं । एक - खून का रिश्ता और दूसरा धर्म का रिश्ता । पहली तरह के रिश्तों की परिभाषा हम सब जानते हैं । दूसरी तरह का रिश्ता अर्थात धर्म का रिश्ता मैं उसे मानता हूँ जो किसी से मानसिक और भावनात्मक लगाव के कारण बनता है । इसे मैं सिर्फ मित्र की श्रेणी में रखता हूँ । इसमें आभाषी और व्यक्तिगत जुड़ाव शामिल है। इन रिश्तों का स्वरूप धर्म के भाई बहन का भी होता है जो मित्रवत ही होते हैं। दैहिक आकर्षण युक्त रिश्तों को मैं अस्थाई मानता हूँ। यहां अपवाद हो सकते हैं ।
अब बात करते हैं आधुनिक जीवन शैली में रिश्तों की सार्थकता की । जहां एक ओर खून के रिश्तों का महत्व घटते नजर आ रहा है वहीं दूसरी ओर मित्रवत रिश्तों का महत्व बढ़ रहा है । यही कारण है कि पहली तरह के रिश्तों की सार्थकता कम हुई है और दूसरी तरह के रिश्तों की सार्थकता बढ़ती हुई दिखती है। कारण अनेक हैं । जबसे सीमित परिवार की धरणा प्रबल हुई है तभी से एकाकीपन ने घेर लिया है। इसी एकाकीपन को दूर करने के लिए परिवार से सब भाग रहे हैं और दूसरी तरह के रिश्तों में बंध रहे हैं । आधुनिक जीवन शैली ने अधिकतर पती पत्नि को धन उपार्जन की मशीन बनाकर रख दिया है । समय की कमी का रोना रोकर हमने बच्चों की परवरिश का ठेका दे रखा है । स्वाभाविक है जब परवरिश ही सही नही होगी तो संस्कार तो दूषित होंगे ही न ! फिर कैसे हम रिश्तों में सार्थकता की उम्मीद करें ?
आज यदि सबसे ज्यादा जरूरी है तो वह है परवरिश और संस्कार की देयता । यदि यहां हम चूक करते हैं तो आने वाले समय में रिश्ते केवल नाम मात्र के ही रह जायेंगे । दोनों ही तरह के रिश्तों की सार्थकता तभी है जब उन्हें समय दिया जाए । समय देंगे तो अच्छे संस्कार स्वतः ही प्रस्फुटित होने लगेंगे । यही सार्थकता भी होगी।
- देवेंन्द्र सोनी , इटारसी।
आधुनिक जीवन शैली में रिश्तों की सार्थकता
जीवन शैली पुरातन हो या आधुनिक, रिश्तों की सार्थकता पर प्रश्न सदैव उठते रहे हैं । जहां रिश्ते होंगे वहां प्यार , दुलार , मनुहार भी होगा और मन मुटाव या झगड़े भी होंगे ही । मेरी नजर में रिश्तों का स्वरूप सदैव स्थाई होता है लेकिन उसका महत्व कम या ज्यादा होता रहता है । यहीं से उनकी सार्थकता या निरर्थकता का आंकलन होता है।
रिश्ते दो तरह के होते हैं । एक - खून का रिश्ता और दूसरा धर्म का रिश्ता । पहली तरह के रिश्तों की परिभाषा हम सब जानते हैं । दूसरी तरह का रिश्ता अर्थात धर्म का रिश्ता मैं उसे मानता हूँ जो किसी से मानसिक और भावनात्मक लगाव के कारण बनता है । इसे मैं सिर्फ मित्र की श्रेणी में रखता हूँ । इसमें आभाषी और व्यक्तिगत जुड़ाव शामिल है। इन रिश्तों का स्वरूप धर्म के भाई बहन का भी होता है जो मित्रवत ही होते हैं। दैहिक आकर्षण युक्त रिश्तों को मैं अस्थाई मानता हूँ। यहां अपवाद हो सकते हैं ।
अब बात करते हैं आधुनिक जीवन शैली में रिश्तों की सार्थकता की । जहां एक ओर खून के रिश्तों का महत्व घटते नजर आ रहा है वहीं दूसरी ओर मित्रवत रिश्तों का महत्व बढ़ रहा है । यही कारण है कि पहली तरह के रिश्तों की सार्थकता कम हुई है और दूसरी तरह के रिश्तों की सार्थकता बढ़ती हुई दिखती है। कारण अनेक हैं । जबसे सीमित परिवार की धरणा प्रबल हुई है तभी से एकाकीपन ने घेर लिया है। इसी एकाकीपन को दूर करने के लिए परिवार से सब भाग रहे हैं और दूसरी तरह के रिश्तों में बंध रहे हैं । आधुनिक जीवन शैली ने अधिकतर पती पत्नि को धन उपार्जन की मशीन बनाकर रख दिया है । समय की कमी का रोना रोकर हमने बच्चों की परवरिश का ठेका दे रखा है । स्वाभाविक है जब परवरिश ही सही नही होगी तो संस्कार तो दूषित होंगे ही न ! फिर कैसे हम रिश्तों में सार्थकता की उम्मीद करें ?
आज यदि सबसे ज्यादा जरूरी है तो वह है परवरिश और संस्कार की देयता । यदि यहां हम चूक करते हैं तो आने वाले समय में रिश्ते केवल नाम मात्र के ही रह जायेंगे । दोनों ही तरह के रिश्तों की सार्थकता तभी है जब उन्हें समय दिया जाए । समय देंगे तो अच्छे संस्कार स्वतः ही प्रस्फुटित होने लगेंगे । यही सार्थकता भी होगी।
- देवेंन्द्र सोनी , इटारसी।
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