पूरी जिंदगी
परवाह करते हैं हम
इस बात की -
कि - कोई क्या कहेगा !
खो देते हैं इससे
वे कई पल और खुशियां
जिनसे संवर सकता था
और अधिक
घर - संसार हमारा ।
इस एक दंश से
मुरझा जाते हैं , कभी - कभी
बेटे और बेटियों के भविष्य
या कई दफा , सपने भी हमारे।
देखते और सोचते हैं
अक्सर ही हम , इसी रूप में
इस प्रश्न को
पर मेरी नजर में - होता है ,
एक पहलू और भी इसका।
बचाता है यही डर , बार - बार
अनेक अप्रिय स्थितियों से भी हमको।
सोचें , तो मिलेगा उत्तर यही
सिक्के के दो पहलू की तरह ही है
परिणाम भी इसके ।
कभी बचाता है तो कभी
डुबाता भी है प्रश्न यह -
कि - कोई क्या कहेगा ?
समझकर इसे -
लें अपने विवेक का सहारा
और करें वही -
जिसके सुखद हो परिणाम ।
- देवेंन्द्र सोनी , इटारसी।
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