जरा हटके - नई कविता
कितने अरमान मचलते हैं
मन के अंगना में हमारे
जुटे रहते हैं -
पूरा करने में इन्हें
जीवन भर हम ।
चैन से सोने भी नहीं देते हैं ये
सहोदर होती हैं इनकी
नित नई उलझनें और चिन्ताएं
जो दुस्वार कर देती है जीवन हमारा ।
अरमानों को जब तक
नियंत्रित करना नहीं सीखेंगे हम
तब तक नैराश्य और अवसाद
का घर बना रहेगा , मन में हमारे।
मुक्ति पा नी ही होगी हमको
अरमानों की बहुलता से
होना ही होगा संतुष्ट इससे कि
जो मिला है और निरन्तर मिल रहा है
बहुत है वह , औरों की अपेक्षा।
देखा है मैने , उन्हें भी जो
रहते हैं बिंदास फुटपाथ पर
दो जून की रोटी कहीँ से भी पाकर
और उन्हें भी देखा है - जो,
सोते हैं सुकून से
हाड़-तोड़ मेहनत के बाद भी
पत्थरों पर ।
ज्यादा फर्क नही है ,
उनमें और हम में
वे भी हाड़-मांस के पुतले हैं
और हम भी वही हैं ।
फर्क है तो बस इतना -
वे उन अरमानों से मुक्त
रखते हैं खुद को ,
जिन्हें हम पालते रहते हैं
अदम्य जिजीविषा के चलते
मन में अपने ।
नही कहता -
बुरा है अरमानों में जीना
पर जिएं भी तो
जीने की ही तरह ।
- देवेंन्द्र सोनी , प्रधान सम्पादक
युवा प्रवर्तक, इटारसी ।
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