जरा हटकर - नई कविता -
रोज देखता हूँ ,
निश्चित समय पर
उस अर्ध विक्षिप्त अधेड़ महिला को
जो निकलती है ,
मेरे घर के सामने से
कटोरा लिए हाथ में।
उपजती है मन में पीड़ा
आता है कारुणिक भाव भी
और होती है यह जिज्ञासा प्रबल
कि - जानूँ , समझूँ उसके हालातों को।
सुन रखा था मैंने -
अनेक लोगों से
उसके स्वाभिमान के बारे में।
अंततः एक दिन
रोक ही लिया मैने उसे ।
पूछने पर बताया उसने
जान बचाकर जलती हुई
भागी थी ससुराल से ,
लेकर अपनी दूधमुंही बेटी को।
उमड़ी थी तब
अनेक रिश्तों में करुणा
अनचाही वासना युक्त हमदर्दी
ठुकरा दिया था जिसे मैने।
अब तो अरसा बीत गया है
झौपड़ी में रहती हूँ
भीख मांगकर
बेटी को पढ़ाती हूँ ।
इस साल जब नर्स बन जायेगी वह
ले सकूंगी , चैन की अंतिम साँस ।
बोली वह - बाबू ,
आजकल करुणा , दया, हमदर्दी
सब दिखावा है ,
स्वारथ का पिटारा है।
समय रहते समझ गई थी इसे
इसीलिए हमदर्दी की नहीं
स्वाभिमान की भीख मांगती हूँ
और आत्मसम्मान से जीती हूँ ।
देवेंन्द्र सोनी , इटारसी।
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