गुरुवार, 30 नवंबर 2017

करुणा


जरा हटकर - नई कविता - 

रोज देखता हूँ , 
निश्चित समय पर
उस अर्ध विक्षिप्त अधेड़ महिला को
जो निकलती है , 
मेरे घर के सामने से
कटोरा लिए हाथ में।

उपजती है मन में पीड़ा
आता है कारुणिक भाव भी 
और होती है यह जिज्ञासा प्रबल
कि - जानूँ , समझूँ उसके हालातों को।

सुन रखा था मैंने -
अनेक लोगों से 
उसके स्वाभिमान के बारे में।

अंततः एक दिन 
रोक ही लिया मैने उसे ।

पूछने पर बताया उसने 
जान बचाकर जलती हुई 
भागी थी ससुराल से , 
लेकर अपनी दूधमुंही बेटी को।

उमड़ी थी तब 
अनेक रिश्तों में करुणा 
अनचाही वासना युक्त हमदर्दी
ठुकरा दिया था जिसे मैने।

अब तो अरसा बीत गया है 
झौपड़ी में रहती हूँ 
भीख मांगकर
बेटी को पढ़ाती हूँ ।

इस साल जब नर्स बन जायेगी वह
ले सकूंगी , चैन की अंतिम साँस ।

बोली वह - बाबू , 
आजकल करुणा , दया, हमदर्दी 
सब दिखावा है , 
स्वारथ का पिटारा है।

समय रहते समझ गई थी इसे 
इसीलिए हमदर्दी की नहीं 
स्वाभिमान की भीख मांगती हूँ 
और आत्मसम्मान से जीती हूँ ।

      देवेंन्द्र सोनी , इटारसी।

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मंगलवार, 28 नवंबर 2017

प्रदूषण - मौत की रानी

 मैं राजा मेरे जीवन का, वो मौत की रानी 
बनकर, मेरी सांसें चुरा रही है 
धीरे - धीरे - धीरे, मौत आ रही है

 हर साँस में उसे महसूस करूँ 
हर पल वो मेरे करीब आ रही है 
धीरे - धीरे - धीरे, मौत आ रही है

मैं चाहकर भी कैसे भुला दूँ उसको 
वो मेरे जिंदगी का हर लम्हा चुरा रही है 
वो रात में, ख्वाब में, मुझे सत्ता रही है
धीरे - धीरे - धीरे, मौत आ रही है 

 - सुभाष वर्मा  


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शुक्रवार, 24 नवंबर 2017

इश्क़ कितना है


मोहब्बत पर हमारी इसक़दर उन्हे विश्वास हो जाए...
मोहबात पर हमारी इसक़दर उन्हे विश्वास हो जाए...
जिससे महबूब थोडा दिल के ओर पास हो जाए|
इश्क़ कितना है , बताएँगे तुम्हे कभी फ़ुर्सत में,
इश्क़ कितना है , बताएँगे तुम्हे कभी फ़ुर्सत में,
अभी तो बस सर्दी में, थोड़ी गर्मी का एहसास हो जाए|
हा हा हा... ये सर्दी...
(संतोष कुमार)

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- क्या है नैतिकता ?

जरा हटकर - लेख 

      सामान्यतः नीतिगत विचारों को , उसके सिद्धान्तों को व्यवहार में अपनाना ही नैतिकता कहलाता है। यह नीतिगत विचार और सिद्धान्त , देशकाल , समय तथा परिस्थितियों के अनुसार सबके लिए अलग -अलग हो सकते हैं । जब इनमें भिन्नता आती है तो उसे अनैतिकता का नाम दे दिया जाता है । 
        विचार करें तो पाते हैं - किसी के लिए भी झूठ बोलना अनैतिक है। कोई भी इससे असहमत नहीं लेकिन एक अधिवक्ता के लिए यही झूठ , कर्म में बदल कर नैतिकता के दायरे में आ जाता है। सभी मानते हैं - चोरी करना अनैतिक है ,  लेकिन जब यह कर्म में बदलता है तो करने वाले की रोजी रोटी का साधन बन जाता है । उसके लिए यह नैतिक है । स्त्री की देह (व्यापार ) का उपयोग कहीं नैतिक है तो अनैतिक भी है। कहीँ 5 पति होना नैतिक है , चार विवाह करना नैतिक है तो कहीं ये सब अनैतिक भी हैं । 
     कहने का तातपर्य सिर्फ इतना है कि नैतिकता - बहुत लचीली होती है । इसे एक सिद्धान्त या एक राय से संचालित नही किया जा सकता और न ही अपनाया जा सकता है । नैतिकता के सामान्य और सर्वमान्य सिद्धान्तों को स्वीकारते हुए , यदि हम उन्हें आचरण में लाते हैं तो वे धीरे धीरे हमारे संस्कार का रूप धारण कर लेते हैं , यहीं से फिर स्व संस्कृति का विकास होता है। यही संस्कार - ईश वंदना से लेकर तमाम सामाजिक ,पारिवारिक दायित्वों के निर्वहन का संवाहक बनता है । जिसे हम नैतिकता और आदर्श का नाम  दे देते हैं ।      
      किसी घर में बड़ों का चरण स्पर्श किया जाता है , किसी घर में गले लगाया जाता है । दोनो ही तरीके नैतिकता के दायरे में आते हैं पर कहीँ ये गलत हैं तो कहीं ये - सही हैं । अनेक उदहारण हैं ऐसे जो सोचने पर विवश करते हैं कि - आखिर क्या है नैतिकता ? कैसे बचाएं इसे ? एक ही उत्तर मिलता है मुझे - सर्वमान्य सिद्धान्तों और स्व आचरण को मानते हुए मर्यादा में अपना जीवन व्यतीत करें और लोकोपयोगी कार्य के सहभागी बनें। यही सबसे बड़ी नैतिकता है जिसे हम सप्रयास बचा सकते हैं । 
         - देवेंन्द्र सोनी , इटारसी।

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कश्मकश



जरा हटके - नई कविता 

रहती है जब भी 
मन में कश्मकश 
चलता है 
किसी बात को लेकर द्वंद
तब अधिकतर होता है ऐसा - 
खो देते हैं हम अपना विवेक ।

क्योंकि तब सुनते हैं हम -
केवल अपने मन की ।

मन अक्सर जुड़ा रहता है
किसी न किसी अस्थाई लोभ से 
जो हर लेता है उस वक्त
विवेक को हमारे।

दिखता है सिर्फ वही , वही 
छूट जाते हैं जिससे - 
कई रिश्ते - नाते और 
कभी कभी तो घर -परिवार भी।

गहरा नाता है -
वैचारिक द्वंद और विवेक का ।

इसलिए जरूरी है -
जब भी उठे मन में कोई द्वंद 
दें अपने विवेक को प्रधानता 
न करें कोई त्वरित निर्णय , एकतरफा। 

रह कर तटस्थ 
कर दें इसे समय के हवाले ।

समय कर देता है स्वतः ही 
हर द्वंद का उपचार
देता है जो अक्सर 
सुखद और सर्वहित के परिणाम ।

      - देवेंन्द्र सोनी , इटारसी।

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भारत में शिक्षा पद्धति कैसी हो ?


   -  राजेश कुमार शर्मा"पुरोहित"


अर्वाचीन काल मे भारत की शिक्षा मैकाले की शिक्षा पद्धति पर ही चल रही है। आज की शिक्षा मात्र नोकरी पाने हेतु क्लर्क तैयार कर सकती है। नैतिक व आध्यात्मिक शिक्षा का अभाव है। डिग्रियों का बोझ लिए आज के युवक युवतियां बेरोजगारी का रोना रो रहे हैं। 
   आज की शिक्षा न तो रोजगातपरक है और न ही संस्कारवान बनाने में सक्षम। बच्चों को इतिहास की घटनाएं नहीं पढ़ाई जा रही है। न तो वह सुभाषचन्द्र बोस,भगत सिंह न चंद्रशेखर आज़ाद के बारे में जानते है न कभी पढ़ा है। गांव के सरकारी स्कूलों के बच्चे गाँधीजी के अलावा किसी नेता के बारे में नहीं जानते। हमारे देश के क्रांतिकारियों के चित्र उन्होंने देखे नही। कैसी है हमारी शिक्षा व्यवस्था। जिन्होंने आज़ादी के लिए अपने प्राण दे दिए। जो अमर शहीद हैं। क्या आज पाठ्यक्रम में उनके पाठ हैं? देखने की आवश्यकता है । आज देश के हर विद्यालयों में क्रान्तिकातियो,महापुरुषों, सामाजिक सुधारकों,सच्चे देशसेवकों के चित्र लगाकर उनके संक्षिप्त परिचय को विद्यालयों में लगाने हेतु पाबंद करना चाहिए।

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मंगलवार, 21 नवंबर 2017

लघु कहानी - संगति

जरा हटकर - लघु कहानी - संगति 


       संगति का असर तो होता ही है , यह बात रमेश को उस समय समझ आई जब एक माह तक अपनी बुरी आदतों को छोड़कर वह सादगी से अपने कर्म में जुटा रहा । उसके व्यवहार परिवर्तन के बाद ही रमेश के " गुरु जी ' आज घर आ रहे थे। वह उनके आगमन से उत्साहित और प्रसन्न था । साथ ही उसे यह पछतावा भी हो रहा था कि - काश ! पहले ही उसे सच्चा मार्गदर्शन क्यों नही मिला । क्यों उसने अपने परिजनों की समझाइस पर ध्यान नही दिया ? पर कहते हैं ना - जब जागे तभी सबेरा । यही सबेरा अब रमेश की बर्बाद होती जिंदगी में खुशहाली लेकर आया था । उसे याद आ रहा था - कैसे अपने व्यवसाय को बढ़ाने के लिए वह गलत संगत का शिकार हुआ और शराब - शवाब को अंगीकार कर अपने हंसते - खेलते परिवार से धीरे - धीरे दूर होता चला गया । सुबह से रात तक सिगरेट शराब का आदि हो चुके रमेश को कई बार सबने समझाया पर उस पर कोई असर नही हुआ लेकिन जब व्यवसाय बैठ गया तो उसके एक मित्र ने उसे एक सिद्ध पुरुष से मिलवाया । कुछ सोचकर महात्मन ने रमेश से कहा - सब ठीक हो जाएगा पर इसके लिए तेरे घर में एक अनुष्ठान करना होगा। 
   अपनी अनेक परेशानियों से घिरे निराश रमेश ने इस हेतु सहर्ष स्वीकृति दे दी लेकिन गुरूजी ने घर में प्रवेश करने से इंकार कर दिया । रमेश ने जब कारण जानना चाहा तो अपने नेत्र बंद कर वे बोले - तेरे घर से शराब की बू आ रही है । ऐसे में मातारानी का अनुष्ठान नही हो सकता । तुझे सिगरेट और शराब छोड़ना होगी । यदि ऐसा कर सका तो एक माह बाद अनुष्ठान हो सकेगा जिससे तेरी सारी परेशानी दूर हो जाएगी और व्यवसाय फिर चल पड़ेगा । साथ ही परिवार में भी सुख शांति आ जाएगी। गुरूजी की बात सुनकर रमेश पशोपेश में पड़ गया लेकिन तुरन्त ही स्वयं को सम्हालते हुए उसने गुरूजी को वचन दे दिया कि - अभी से ही वह सिगरेट और शराब को हाथ नही लगाएगा और उसने यह कर दिखाया। 
   आज एक माह हो गया था । गुरूजी अनुष्ठान के लिये घर आ रहे थे । परिवार के सभी सदस्य खुशी खुशी अनुष्ठान और गुरूजी के स्वागत की तैयारी में जुटे थे। अनुष्ठान पूरा हुआ और कुछ ही दिनों में सार्थक परिणाम भी दिखने लगे । 
       रमेश ने दोनों प्रकार की संगत का असर देख लिया था । वह समझ  गया था - अच्छी और बुरी संगत के परिणामों को ।
    - देवेंन्द्र सोनी , इटारसी।

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रविवार, 19 नवंबर 2017

जुनून ऐ शिखर

बंदिश अगर लबों पर होती, महखाने और पबों पर होती
तो बातें तुम्हारी आँखों से होती, और नशा तुम्हारी सांसों से होता
   
यूँ टकराती आँखें,पैमाने सी खनक होती
यूँ टकराते जाम लबों से, और लहर सांसों में होती

लोग इश्क को यूँ बदनाम न करते, राह चलते यूँ सरेआम न करते   

हर कोई ढूंढ़ता “जुनून ऐ शिखर”, फिर नशे को यूँ बदनाम न करते 
 - सुभाष वर्मा 

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लेख - छीन रहे हैं बचपन , भारी होते बस्ते




        वर्तमान में बच्चों के भारी होते बस्तों से सभी त्रस्त हैं लेकिन प्रतिस्पर्धा और सबसे आगे रहने की चाह में खुलकर कोई भी इसका विरोध नही करता है और न ही खुद से कोई पहल ही करता है  क्योंकि बदले समय के लिहाज से अब यह आवश्यक लगता है।
       डिजिटल युग में आज बच्चों की मनोवृत्ती भी बदल गई है । परिस्थितिवश खेल कूद और अन्य गतिविधियों से उनका मोह भंग हो गया है । मैदानी अभिरुचि का स्थान किताबों और यांत्रिकता ने ले लिया है। मोबाइल और कम्प्यूटर भी आधुनिक शिक्षा के पर्याय बनते जा रहे हैं ।

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अरमान



जरा हटके - नई कविता 

कितने अरमान मचलते हैं
मन के अंगना में हमारे
जुटे रहते हैं -
पूरा करने में इन्हें 
जीवन भर हम ।

चैन से सोने भी नहीं देते हैं ये
सहोदर होती हैं इनकी
नित नई उलझनें और चिन्ताएं
जो दुस्वार कर देती है जीवन हमारा ।

अरमानों को जब तक 
नियंत्रित करना नहीं सीखेंगे हम 
तब तक नैराश्य और अवसाद
का घर बना रहेगा , मन में हमारे। 

मुक्ति पा नी ही होगी हमको
अरमानों की बहुलता से 
होना ही होगा संतुष्ट इससे कि
जो मिला है और निरन्तर मिल रहा है
बहुत है वह , औरों की अपेक्षा।

देखा है मैने , उन्हें भी जो
रहते हैं बिंदास फुटपाथ पर
दो जून की रोटी कहीँ से भी पाकर 
और उन्हें भी देखा है - जो,
सोते हैं सुकून से 
हाड़-तोड़ मेहनत के बाद भी
पत्थरों पर ।

ज्यादा फर्क नही है ,
उनमें और हम में 
वे भी हाड़-मांस के पुतले हैं
और हम भी वही हैं ।

फर्क है तो बस इतना -
वे उन अरमानों से मुक्त 
रखते हैं खुद को ,
जिन्हें हम पालते रहते हैं
अदम्य जिजीविषा के चलते
मन में अपने । 

नही कहता - 
बुरा है अरमानों में जीना 
पर जिएं भी तो 
जीने की ही तरह । 

      - देवेंन्द्र सोनी , प्रधान सम्पादक
        युवा प्रवर्तक, इटारसी ।

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मंगलवार, 14 नवंबर 2017

बचपन के वो पल सुहाने



जरा हटके - नई कविता 

याद आते हैं , दिन पुराने 
बचपन के वो खेल - तमाशे
थे कितने वे पल सुहाने । 

लुका - छिपी खेलते - खेलते
खो - खो में खो जाना
गिल्ली हो या गेंद लपकने
जी भर दौड़ लगाना ।

लँगड़ी , पिट्ठू या कबड्डी 
रोज ही मन ललचाते थे 
इतने पर भी लगे अधूरा , तो
दंड - बैठक खूब लगाते थे । 

जाने कितनी है यादें , जो
भूली बिसरी सी लगती है ।

पाठशाला से मिली जो शिक्षा
आज नहीं बिसराती है।
जीवन में पल - पल , अब भी 
काम वही आती है । 

बीता समय , बीती बातें 
याद बहुत आती हैं ।

दिखते नहीं अब खेल पुराने
बदल गए हैं रिश्तों के माने
मस्ती के दिन अब हुए हवा
जीवन के ये कैसे ताने - बाने ।

परियों की वे कथाएं ,
दादी - नानी जो सुनाती थी ।
छिपे मर्म उनमे जो रहते
अंतस में चिपकाती थीं । 

ज्ञानी - ध्यानी ,वीर - महापुरुषों से
नाना - दादा मिलवाते थे ।
बातों ही बातों में , वे 
जीवन का पाठ पढ़ाते थे।

बीता समय और बीती बातें
अब याद बहुत आतीं हैं ।

हमने जो देखा - समझा 
साथ बड़ों के रहकर 
सिखा न सकते अब हम
बच्चों को सब कुछ भी देकर ।

नया जमाना , नई बातें 
कम ही हर्षाती हैं ।
रह - रह कर बीते दिनों की
याद बहुत आती है ।

              - देवेंन्द्र सोनी , इटारसी।

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अजीब तेरा-मेरा इश्क


अजीब है ना तेरा इश्क
मुझे तेरी आँखों में दिखता नहीं
और तेरी जुवां पे टिकता भी नहीं
तुझसे वफ़ा करते बनता भी नहीं
और बेवफाई का पड़ा पर्दा हटता भी नहीं
गिरगिट जैसा रंग तेरा एक रंग में तू ढलता नहीं
बातें है चाशनी से तर बिन मक्खन के जिन पे काम चलता नहीं
इन सब के वाबजूद भी तू मेरी नजरों से गिरता नहीं
और अपनी उस पुरानी छवि से ऊंचा उठता भी नहीं
अजीब है ना मेरा भी तुझसे इश्क
जो
चीखों पर भी राहत गहन करता नहीं
चोट पर भी अगले कदम को सम्भलता नहीं
चाहने के गुनाह से हरगिज बचता नहीं
ना चाहने का गुनाह भूलकर भी  करता नहीं।

Written By Ritika{Preeti} Samadhiya... Please Try To Be A Good Human Being....✍

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शुक्रवार, 10 नवंबर 2017

ये दिल ❤


ना तुमने कभी मुझे समझा
ना तुमने कभी मुझे जाना
ये दिल फिर भी तुम पे मरता हैं
ये दिल फिर भी तुम्हें प्यार करता है

रहोगे कब तलक जाली सलामों  में
चलोगे कब तलक झूठी शानों में
खो  जाएगी एक न एक दिन सोच तुम्हारी मेरी चाहत के महखाने में

फरक तुम पर नहीं पड़ता तुम हो कुछ ऐसे गुमानो में
राह थामी तुमने जिसका मंजिल से ना वास्ता ना ही पता ठिकानों में
आओगे थक कर तुम एक न एक दिन मेरे ही आशियाने में

ना तुमने कभी मुझे समझा
ना तुमने कभी मुझे जाना 
ये दिल फिर भी तुमपे मरता है
ये दिल फिर भी तुम्हें प्यार करता हैं

वस्ल की राते गुजरती तुम्हारी हर हसीना के नजराने में
बहकते हो तुम दिन में भी जिस्म की खुशबू के तराने में
रोओगे जरूर एक न एक दिन तुम मेरी याद के बीते जमाने में

कर-कर अपनी मनमानी मजाक बनाते मेरा तुम अपने यारों के गुठ को और रंगीन बनाने में
भरता ना दिल तुम्हारा तो जिद्द कर जाते मुझसे ही मेरी हालत बयाँ करवाने में
देख लेना वादा है तुमसे ये मेरा तरस जाओगे तुम एक दिन और बिखर भी जाओगे तुम उसी दिन फिर से मुझ जैसी महबूबा पाने में।

न तुमने कभी समझा
न तुमने कभी जाना
ये दिल फिर भी तुमपे मरता है
ये दिल फिर भी तुम्हें प्यार करता है।

Written By  Ritika {Preeti} Samadhiya.... Please Try To Be A Good Human Being...✍

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गुरुवार, 9 नवंबर 2017

अभिव्यक्ति - आधुनिक जीवन शैली में रिश्तों की सार्थकता

जरा हटके - लेख -
आधुनिक जीवन शैली में रिश्तों की सार्थकता

     जीवन शैली पुरातन हो या आधुनिक, रिश्तों की सार्थकता पर प्रश्न सदैव उठते रहे हैं । जहां रिश्ते होंगे वहां प्यार , दुलार , मनुहार भी होगा और मन मुटाव या झगड़े भी होंगे ही । मेरी नजर में रिश्तों का स्वरूप सदैव स्थाई होता है लेकिन उसका महत्व कम या ज्यादा होता रहता है । यहीं से उनकी सार्थकता या निरर्थकता का आंकलन होता है। 
     रिश्ते दो तरह के होते हैं । एक - खून का रिश्ता और दूसरा धर्म का रिश्ता । पहली तरह के रिश्तों की परिभाषा हम सब जानते हैं । दूसरी तरह का रिश्ता अर्थात धर्म का रिश्ता मैं उसे मानता हूँ जो किसी से मानसिक और भावनात्मक लगाव के कारण बनता है । इसे मैं सिर्फ मित्र की श्रेणी में रखता हूँ । इसमें आभाषी और व्यक्तिगत जुड़ाव शामिल है। इन रिश्तों का स्वरूप धर्म के भाई बहन का भी होता है जो मित्रवत ही होते हैं। दैहिक आकर्षण युक्त रिश्तों को मैं अस्थाई मानता हूँ। यहां अपवाद हो सकते हैं ।


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मित्र


एक मित्र ऐसा हो
दिल मे धड़कन जैसा हो
एक मित्र ऐसा हो
आंखों में नूर जैसा हो
एक मित्र ऐसा हो
सीने में सांसो जैसा हो
एक मित्र ऐसा हो
सागर में नमक जैसा हो
एक मित्र ऐसा हो
सुई में धागे जैसा हो
एक मित्र ऐसा हो
फूलो में खुशबू जैसा हो
एक मित्र ऐसा हो
जीवन में खवाबों जैसा हो
एक मित्र ऐसा हो
गंगा में पावनता जैसा हो
एक मित्र ऐसा हो
होठों पे हसीं जैसा हो
एक मित्र ऐसा हो
मंदिर में मूर्त जैसा हो
एक मित्र ऐसा हो
सूरज की किरण जैसा हो
एक मित्र ऐसा हो
मोहब्बत में वफ़ा जैसा हो
एक मित्र ऐसा हो
शायरी में दर्द जैसा हो
एक मित्र ऐसा हो
अंधेरो में दीप जैसा हो
एक मित्र ऐसा हो
दर्द में टीस जैसा हो
एक मित्र ऐसा हो
इन्द्रधनुष में रंग जैसा हो
एक मित्र ऐसा हो
कृष्ण सुदामा जैसा हो
एक मित्र ऐसा हो 
जो बिल्कुल तेरे जैसे हो
जो बिल्कुल तेरे जैसा हो......


@प्रदीप सुमनाक्षर










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बुधवार, 8 नवंबर 2017

बाटा वाली चप्पल


मिट्टी मे मिट्टी होकर हम खेल खेलते थे
पूरा होने से पहले ही बिगाड चुके होते थे
झगडकर एक दूसरे के फिर बाल नोचते थे
कुछ इस तरह खत्म होता था एक खेल
फिर हम दूसरा खेलते थे
वो बचपन महान था ना दोस्तो
जब बाटा वाली चप्पल जोडकर पहनते थे

जब घर मे सब बच्चो के नए कपडे आते थे
छोटे को वही चाहिए जो बडे के होते थे
कपडो के रंगो पर भी तो कितने झगडे होते थे
ये वो फैसले थे जो कभी नही होते थे
और हम अपने नए कपडे जूते साथ लेकर कंबल मे सोते थे
वो बचपन सच मे महान था दोस्तो
जब बाटा वाली चप्पल जोडकर पहनते थे

असली तूफां तो घर मे उस वक्त आ जाते थे
जब भाई मेरी गुडिया का मुंडन कर देते थे
रोता देख मुझे माँ पापा मेरी तरफ होते थे
सिर्फ डांट खिलाकर शांत नही होती थी मै
मैने भी उसके हैलीकाप्टर के पंख तोड दिए थे
वो बचपन सच मे महान था दोस्तो
जब बाटा वाली चप्पल जोडकर पहनते थे

रात को आफिस से जब पापा घर आते थे
जान बूझकर सोने का दिखावा करते थे
अचानक जागकर उनको डरा देते थे
पापा भी डरने का नाटक बखूबी करते थे
फिर एक दूसरे की शिकायते करते हुए सोते थे
वो बचपन महान था ना दोस्तो
जब बाटा वाली चप्पल जोडकर पहनते थे

हर दिन माँ पापा हमे नए नाम से बुलाते थे
प्यार जताने के उनके ओर भी बहोत तरीके थे
कब नहीं छलके थे उनके आँसू 
जब कभी सिर तो कभी हमारे घुटने फूटे थे
बेशक वो दौडकर हमे डाक्टर तक ले जाते थे
पर वो फूंक वाले मरमह ज्यादा असर करते थे
वो बचपन महान था ना दोस्तो
जब बाटा वाली चप्पल जोडकर पहनते थे

~Anupama verma

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मंगलवार, 7 नवंबर 2017

मगरूर

जरा हटके - नई कविता



आते हैं जब 
इस दुनिया में हम
कितने सहज , सौम्य और 
निश्छल होते हैं ।

धीरे-धीरे होते हैं प्रभावित
और अपनाने लगते हैं 
उस वातावरण को , जो
कराता है हमसे मनमानी ,
बनाता है क्रमशः हमको मगरूर ।

सिखाने लगता है
दुनियादारी और
बोने लगता है 
मन में हमारे 
बीज मगरूरता के ,
करते रहने को मनमानी।

हाँ , हर कहीं भी नहीं पनपते हैं 
मगरूरता और मनमानी के ये बीज 
इन्हें चाहिए होता है
वह खाद - पानी भी 
जो मिल जाता है आसानी से
हमारे ही आस- पास  के परिवेश में ।

बदलते युग में मिल रही
मनचाही सुविधाएं भी 
एक बड़ा कारण होता है
मगरूर और मनमौजी होने का हमारे 
उन सबके बीच जो
वंचित हैं इन सुविधाओं से ।

मगरूर या मनमर्जी के होना 
कोई अच्छी निशानी नही है
व्यक्तित्व के हमारे
मगर करते कहाँ हैं 
परवाह हम इसकी ।

यही लापरवाही, अनदेखी
कर देती है हमारे अंदर 
मगरूर और मनमर्जी के 
पेड़ को इतना बड़ा
कि जब वह होता है फलित तो
देने लगता है ऐसे विषैले फल
जो करते हैं , केवल और केवल
हमारा ही संहार ।

सोचना और लाना होगा 
वह परिवर्तन जो 
बचा दे हमको 
मगरूरता या मनमर्जी के इस पेड़ से 
और सफल कर दे , 
जीवन हमारा ।

          - देवेंन्द्र सोनी, प्रधान संपादक
           युवा प्रवर्तक , इटारसी ।

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शनिवार, 4 नवंबर 2017

लेखन की शुरुआत कैसे करें - लेखन रणनीति / How to Start Writing - Writing Strategy by Subhash Verma





दिमाग में उत्पन्न विचारों, कल्पनाओं को कागज पर उकेरना एक चित्रकार और लेखक की कला है, फर्क सिर्फ इतना है की एक रंगों से अपनी कला को सजाता है तो एक शब्दों से। दोनों कलाओं में महत्वपूर्ण है जुड़ाव, कहीं रंगों का तो कहीं शब्दों का। 
जब तक एक चित्रकार अपनी रचना को आपस में जोड़ नहीं देता तब तक वो चित्र नहीं बनता उसी तरह एक लेखक जब तक अपनी रचना के हर हिस्से को एक दूसरे से नहीं जोड़ देता वो रचना नहीं कहलाती। 

जब लेखक लिखने बैठता है तो हर पहलु के बारे में सोचकर उसे पूर्ण करता करता है,  

लेखन शतरंज के खेल की तरह है फर्क सिर्फ इतना है की यहां आखिरी चाल सबसे पहले सोची जाती है : सुभाष वर्मा  
 अब अगर आप लिखना चाहते हैं तो खुद से पूछिए की आप लिखना क्यूँ चाहते हैं, अब जानते हैं की लिखना शुरू कैसे करें......  

1. डायरी में नोट करना शुरू करें / ढांचा तैयार करें (Make the template) : आपके पास विचार हैं, नए आइडियाज हैं ...आप उन्हें लिखना चाहते हैं ...पर जब लिखने बैठते हैं तो भूल जाते हैं, लेखकों के साथ अक्सर ऐसा होता है। इसलिए एक डायरी ले और हर विचार को उसमे लिखते रहें। कम से कम शब्दों में लिखें.....पर कल पर मत छोड़ें।  बाद में यही लिखे हुए विचार/आइडियाज आपको एक बेहतरीन कहानी, कविता उपन्यास लिखने में मदद करेंगे। 

2. विश्लेषण (Analysis / Research ) करें : अगर आप कहानी या ब्लॉग आप लिख रहें हैं तो उसके बारे में जानकारी इकट्ठा करें, ब्लॉग पढ़ें, इंटरनेट पर पढ़ें। एक अच्छे लेख के लिए आपकी जानकारी बिलकुल सही होनी चाहिए। विचारों को एकत्रित करे। बिना जानकारी या गलत लिखना आपको हंसी का पात्र बना देगा और पाठक आपकी रचना पर ध्यान नहीं देगा।.....


3. अच्छे पाठक बने : एक लेखक का काम सिर्फ लिखना भर नहीं है उसे पढ़ना भी चाहिए परन्तु एक पाठक के नजरिये से नहीं बल्कि एक लेखक के नजरिये से। एक लेखक का नजरिया विश्लेषणकरने का होता है, ये जरुरी नहीं की आप किसी अच्छे और जानेमाने लेखक को ही पढ़ें, आपको ये जानना है की कैसे लिखी गयी रचना को और बेहतर किया जा सकता है, कैसी कल्पना की गयी है। 
अच्छे लेखक अच्छे पाठक भी होते हैं। 
फेसबुक पर हजारों ग्रुप हैं, हजारों की संख्या में लेखक भी हैं, बहुत से लेखक वहां अपनी रचना लिखते हैं और गायब हो जाते हैं, और ज्यादातर ऐसा ही करते हैं, पर पढ़ना कोई नहीं चाहता। कुछ तो जानते ही नहीं की पाठक कैसे मिलें।   

4.टुकड़ों में लिखें : ये जरूरी नहीं की आप बैठ का एक ही बार में पूरी कहानी लिखें या पूरा उपन्यास लिखेंगे, कहानी के लिया तैयार किया गया ढांचा भरें, पृष्ठभूमि तैयार करें।   

5. हर रोज लिखना शुरू करें : ये थोड़ा मुश्किल लगता है पर है नहीं, ये जरूरी नहीं की आप एक ही दिन में सबसे बेहतर लिख डालेंगे, हर रोज लिखने की आदत डालिये, थोड़ा-थोड़ा अपने समय के अनुसार लिखिए, अगर लेखन आपका जूनून है तो इसके लिए समय निकालिये।  

6समीक्षा और संपादित (Review and Edit ) न करें आप लिखना शुरू कर रहें है तो अभी से समीक्षा और संपादित न करें, बस लिखते चले जाईये,  एक बार लिखने के बाद ही समीक्षा और संपादित करें, ऐसा करने से आप मुख्य धारा से विचलित नहीं होंगें। परन्तु प्रकाशित समीक्षा और संपादित करने के बाद ही करें।  

7. सम्पर्क बनाएं :  अक्सर हम देखते हैं की लेखक, या अत्यधिक विचारणीय लोग अकेले रहना पसंद करते हैं, अक्षर वो खुद से ही बातचीत करते रहते हैं, सोचते रहते हैं, पर वो ऐसा हर जगह नहीं करते ....वो अपने जैसे लोगों से संपर्क में रहते हैं, अगर आप लेखक हैं तो लेखकों से सम्पर्क बनाने की कोशिश करें, ये आपको बेहतर कार्य करने में मदद करेगा, आपके सोचने, समझने और लिखने का नजरिया बढ़ेगा, आस-पास होने वाले आयोजन के  बारे में जानने में मदद करेगा। आयोजन में शामिल हों और सीखते रहें। 

8. सोशल मीडिया मंच (social media platform): अपने आपको सोशल मीडिया पर सक्रिय रखें,  इसका मतलब ये कतई नहीं की आप सारा दिन सक्रिय रहें।
 परन्तु जब आप लिख या विचार कर रहें हैं तो इंटरनेट को बंद ही रखें (लिखने के दौरान क्या करें, क्या नहीं, किसी अन्य लेख में जानेगे )


 इन सब बातों को ध्यान रखते हुए आप बेहतरीन लिखना सुरु कर देंगे। अगले लेख में जानेगे की कैसे लिखें और लेखन के दौरान क्या न करे। 

अगर आपको जानकारी पसंद आए तो कृप्या अपनी राय दे, और किसी भी प्रकार की जानकारी के लिए हमें मेल करें।

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धन्यवाद 



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