शनिवार, 16 दिसंबर 2017

जरा हटकर - छवि


रोज ही देखता हूँ , मैं
दर्पण में अपनी बदलती हुई छवि


पल पल बदलते रहना ही
खासियत होती है इसकी
जो क्रमशः इठलाती हुई 
बढ़ती है शिखर की ओर,
और फिर अचानक से शिथिल हो
लुढ़कने लगती है वहां से 
कराते हुए यह एहसास, कि
नहीं रह सकता कोई 
शिखर पर आजीवन।


लुढ़कते हुए ही आना होता है उसे 
फिर जमीं पर ।

छवि कहती है - 
देखो मुझे नित्य ही 
और सीखो यह -
धरा पर आए हो 
सिर्फ धरा के लिए। 


फिर ये गुमान , कैसा ?

       - देवेंन्द्र सोनी , इटारसी।

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शुक्रवार, 15 दिसंबर 2017

लेख - अनावश्यक हस्तक्षेप से बिखरते रिश्ते

           
        वर्तमान समय में रिश्तों में बिगाड़ और बिखराव एक गम्भीर समस्या बनती जा रही है। बात बात पर रिश्ते बिगड़ जाना और फिर आपस में संवाद हीनता का पसर जाना रिश्तों को कहीँ दूर तक बिखरा देता है,जिन्हें फिर से समेटना मुश्किल हो जाता है। घर , परिवार , समाज या अन्य रिश्ते नातों में निरन्तर आ रहे बिखराव की आखिर वजह क्या है ? जाहिर है इस प्रश्न के उत्तर में कोई एक कारण नही हो सकता । हर रिश्तों में अलग अलग कारण और परिस्थितियां होती हैं । जिन्हें समय रहते समझना जरूरी होता है। रिश्ते यदि किसी अनावश्यक हस्तक्षेप की वजह से बिखरते हैं तो अक्सर किसी के हस्तक्षेप से ही सुधरते भी हैं । इसे भी ध्यान में रखा जाना चाहिए ।

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शनिवार, 9 दिसंबर 2017

लेख - "कवि रघुवीर सहाय"

हिंदी साहित्य के विलक्षण कवि
       

 - "कवि रघुवीर सहाय"

संदर्भ :- 9 दिसंबर जन्म दिवस
    राजेश कुमार शर्मा"पुरोहित"

    दूसरा सप्तक के कवियों में प्रमुख नाम रघुवीर सहाय का आता है। हिंदी के विलक्षण कवि,लेखक,पत्रकार,संपादक,अनुवादक,कथाकार,आलोचक।रघुवीर सहाय का जन्म 9 दिसंबर1929 को लखनऊ उत्तर प्रदेश में हुआ था।इन्होंने 1951 में अंगेजी साहित्य में स्नातकोत्तर किया। 1946 से साहित्य सृजन करना प्रारंभ किया। इनका विवाह 1955 में विमलेश्वरी सहाय से हुआ। 
             इनकी प्रमुख कृतियाँ 'सीढ़ियों पर धूप में','आत्म हत्या के विरुद्ध','हँसो हँसो जल्दी हँसो','लोग भूल गए हैं','कुछ पते कुछ चिट्ठियां','एक समय था' जैसे कुल छह काव्य संग्रह लिखे। 'रास्ता इधर से है'(कहानी संग्रह),'दिल्ली मेरा परदेश' और 'लिखने का कारण'(निबन्ध संग्रह) उनकी प्रमुख कृतियाँ है।
रघुवीर सहाय हिंदी के साहित्यकार के साथ साथ एक अच्छे पत्रकार थे,उन्होंने पत्रकारिता की शुरुआत लखनऊ से प्रकाशित दैनिक नवजीवन में 1949 से की। 1951 के आरंभ तक उप संपादक और सांस्कृतिक संवादाता रहे,उसके बाद 1951-1952 तक दिल्ली में "प्रतीक" के सहायक संपादक रहे। 1953-1957 तक आकाशवाणी के समाचार विभाग में उपसंपादक रहे।
                     रघुवीर सहाय की 'बारह हंगरी कहानियां' राख और हीरे शीर्षक से हिंदी भाषान्तर भी समय समय और प्रकाशित हुए। उनकी कविताओं के भाषा और शिल्प  में पत्रकारिता का तेवर दृष्टिगत होता है। तीस वर्षों तक हिंदी साहित्य में अपनी कविताओं के लिए रघुवीर सहाय शीर्ष पर रहे। समकालीन हिंदी कविता के महत्वपूर्ण स्तम्भ रघुवीर सहाय ने अपनी कविताओं में 1960 के बाद की हमारी देश की तस्वीर को समग्रता से प्रस्तुत करने का काम किया। उनकी कविताओं में नए मानवीय सम्बन्धो की खोज देखी जा सकती है। वे चाहते थे कि समाज में अन्याय और गुलामी न हो तथा ऐसी जनतांत्रित व्यवस्था निर्मित हो जिसमें शोषण,अन्याय,हत्या,आत्महत्या,विषमता,दास्तां, राजनीतिक संप्रभुता,जाती धर्म में बंटे समाज के लिए कोई जगह न हो।
      वे चाहते थे किआजादी की लड़ाई जिन आशाओं और सपनों से लड़ीं गयी है उन्हें साकार करने में यदि बाधाएं आती है तो उनका विरोध करना चाहिए। उन्होंने उनकी रचनाओं का विरोध भी किया।
                 1984 में रघुवीर सहाय को कविता संग्रह (लोग भूल गए है) के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उनकी का कविताओं में आम आदमी को हांशिये पर धकेलने की व्यथा साफ दिखाई देती है। उनकी कविता की कुछ पंक्तियां देखिये:-
      *जितनी बूंदे 
      उतने जो के दाने होंगे
      इस आशा में चुपचाप गांव यह भीग रहा है
1982-1990 तक इन्होंने स्वतन्त्र लेखन किया। 'वे तमाम संघर्ष जो मैंने नही किये अपना हिसाब मांगने चले आते है' ऐसी पंक्तियां रचने वाले रघुवीर सहाय जन मानस में एक दीर्घजीवी कवि थे जिनकी कविताये स्वतन्त्र भारत के निम्न मध्यम वर्गीय लोगो की पीड़ा को दर्शाती है। नई कविता के दौर में रघुवीर सहाय का नाम एक बड़े कद के कवि के रूप में स्थापित हुआ था। 1953 में रघुवीर सहाय एक छोटी सी कविता लिखते है-
   *वही आदर्श मौसम
   और मन में कुछ टूटता सा
   अनुभव से जानता हूं कि यह बसन्त है*
रघुवीर सहाय की अधिकांश कविताये विचारात्मक और गद्यात्मक है। वे कहते थे 'कविता तभी होती है जब विषय से दूर यथार्थ के निकट होती है'। रघुवीर सहाय भाषा सजक रहे है। उनकी भाषा बोल चाल की भाषा है। आदमी की भाषा में छिपे आवेश को बनाने का प्रयास रघुवीर सहाय करते थे।
    भारत में आदमी की समस्याओं और विरोधी व्यवस्था में राजनीति तथा जीवन के परस्पर सम्बन्ध को बचाये रखने का प्रयास उनकी कविताओं में दिखाई देता है।
   -98,पुरोहित कुटी,श्रीराम कॉलोनी,भवानीमंडी, पिन- 326502,
जिला-झालावाड़
राजस्थान


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शुक्रवार, 8 दिसंबर 2017

लेख - लोग क्या कहेंगे ?

लोग क्या कहेंगे?
       परिदृश्य चाहे वैश्विक हो , राष्ट्रीय हो , सामाजिक हो या पारिवारिक हो - कुछ भी करने से पहले यह प्रश्न हमेशा सालता है कि - लोग क्या कहेंगे ? उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी और इसका हमारे मूल्यों , सिद्धान्तों और जीवन पर क्या असर पड़ेगा ! चिन्तन का पहलू यह होना चाहिए -  हमको लोगों के कहने की कितनी परवाह करना चाहिए क्योंकि आप यदि अपने नजरिये से अच्छा भी करते हैं तो जरूरी नही कि वह अन्य व्यक्तियों की नजर में भी अच्छा ही हो । सबका नजरिया अलग अलग होता है । फिर , लोगों का तो काम ही है कहना ! 
     यहां मुझे एक बोध कथा याद आ रही है  -  एक पिता पुत्र ने मेले से खच्चर खरीदा और उसे लेकर घर की ओर निकले । रास्ते में किसी ने कहा - कैसा पिता है , खच्चर होते हुए भी बेटे को पैदल ले जा रहा है । पिता को भी लगा तो उसने अपने बेटे को खच्चर पर बैठा दिया और खुद पैदल चलने लगा । आगे चलने पर किसी ने कहा - कैसा बेटा है , बूढ़ा बाप पैदल चल रहा और जवान बेटा शान से सवारी कर रहा। अब दोनों ही खच्चर पर बैठ गए तो फिर किसी ने कहा - क्या लोग हैं , मरियल से खच्चर पर बैठकर जा रहे , खच्चर का जरा ध्यान नही ! 
      इस सन्दर्भ का तातपर्य सिर्फ इतना ही बताना है कि आप कुछ भी करें - लोग तो कहेंगे ही । निर्णय आपको करना है कि आप उसे कितनी तबज्जो देते हैं।


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बुधवार, 6 दिसंबर 2017

लघु कहानी - अपराध बोध


       रमा कई दिनों से अपने पति सुरेश को बेचैन देख रही थी । दिन तो काम काज में कट जाता पर रात को उसे करवटें बदलते रहने का कारण समझ नही आ रहा था । वह हर सम्भव अपने पति को खुश रखने का प्रयास करती पर नतीजा सिफर ही रहता । कई बार उसने रमेश से कारण जानना चाहा पर वह टाला मटोली कर जाता और भरसक प्रयत्न करता कि रमा को इस तरह का कोई एहसास न हो लेकिन उसकी बेचैनी और अनिद्रा का उस पर वश नही था। 
      कुछ दिन तो रमा ने यह सोचकर तसल्ली रखी कि - हो सकता है , रमेश अपने काम काज की वजह से परेशान हों और उसे अपनी परेशानियों में शामिल नही करना चाहते हों  मगर जब नित्य ही यह स्थिति बनने लगी तो रमा अपने अस्तित्व को लेकर आशंकित हो उठी । उसे लगने लगा - जरूर  सुरेश की जिंदगी में कोई और ने अपना स्थान बना लिया है । धीरे - धीरे इस विचार से दोनों के बीच संवाद हीनता पसर गई। सुरेश तो परेशान था ही अब रमा भी अवसाद में आ गई। दोनों बच्चों पर भी इसका असर पड़ने लगा और वे भी बात - बात पर झल्लाने लगे। पारिवारिक स्थिति जब अनियंत्रित होने लगी तो एक दिन रमा ने सुरेश से कहा - आखिर ऐसा कब तक चलेगा ? यदि मुझसे मन भर गया है तो मुझसे कह दो । इस तरह तो मेरी और बच्चों की जिंदगी ही बरबाद हो जायेगी । तुम अपनी सेहत का भी ध्यान नही रख रहे हो । कैसे और कब तक चलेगा यह सब ? रमा की बातें सुनकर सुरेश फफक पड़ा। बोला - ऐसा कुछ नही है रमा ! तुम ऐसा सोच भी कैसे सकती हो ! हां , इन दिनों मैं बहुत परेशान हूँ । एक ऐसे अपराध बोध से ग्रस्त हूँ - जिसने मेरे दिन का चैन और रातों की नींद उड़ा दी है। अपराध भी ऐसा जो मुझसे अनजाने में या अनदेखी में हो गया । बस उसी अपराध बोध ने मेरा यह हाल कर दिया है। 
     सुरेश के आंसू पोंछते हुए रमा ने पूछा - आखिर ऐसा क्या हो गया है । तब सुरेश बोला - रमा , एक दिन मैं अपने मित्र को देखने अस्पताल गया था । वह कई दिनों से बीमार था । उसके बिस्तर के पास ही एक दो - तीन साल का बच्चा भी भर्ती था जो किसी गम्भीर बीमारी से पीड़ित था । मैंने उस पर कोई ध्यान नही दिया। अस्पताल में तो जाने कौन - कौन भर्ती रहते हैं । तभी डॉक्टर से सुना था - उस बच्चे को रक्त की तुरन्त जरूरत है । जिस ग्रुप की उसे जरूरत थी वह कहीं नही मिल रहा था लेकिन मेरा ब्लड ग्रुप वही था । यह जानते हुए भी कि यदि उस बच्चे को ब्लड नही मिला तो उसका बचना नामुमकिन है । पता नही मुझे डॉ . से यह कहने की हिम्मत क्यों नही हुई कि - आप मेरा ब्लड लेकर इसकी जान बचा लीजिये। मैं वापस घर आ गया लेकिन जब दूसरे दिन अस्पताल गया तो पता चला वह बच्चा तो चल बसा। 


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शनिवार, 2 दिसंबर 2017

लेख - वैवाहिक जीवन में बिखराव


  क्यों बढ़ रहा है वैवाहिक जीवन में बिखराव ?

       वैवाहिक जीवन में निरन्तर बढ़ रही बिखराव की घटनाओं ने न केवल प्रभावितों को अपितु समाज को भी चिंता में डाल दिया है। इससे केवल व्यक्ति, परिवार या समाज ही नही अपितु समग्र वातावरण भी दूषित होते जा रहा है । 
         सर्वे बताते हैं कि अनेक परिवार बिखराव के भयानक दौर से गुजर रहे हैं । यदि समय रहते इस ओर ठोस पहल और सकारात्मक वातावरण निर्मित नही किया गया तो आने वाली पीढ़ी और समाज अनैतिकता , अराजकता के माहौल में दम घोंट देगा।
       हम सब जानते हैं कि वैवाहिक बंधन परस्पर सामंजस्य और विश्वास से ही फलीभूत होता है। वातावरण , परिस्थितियां कैसी भी हों यदि पति -पत्नी में तालमेल है तो अनचाहे बिखराव को रोका जा सकता है। यही मूल निवारण भी है। 


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गुरुवार, 30 नवंबर 2017

करुणा


जरा हटकर - नई कविता - 

रोज देखता हूँ , 
निश्चित समय पर
उस अर्ध विक्षिप्त अधेड़ महिला को
जो निकलती है , 
मेरे घर के सामने से
कटोरा लिए हाथ में।

उपजती है मन में पीड़ा
आता है कारुणिक भाव भी 
और होती है यह जिज्ञासा प्रबल
कि - जानूँ , समझूँ उसके हालातों को।

सुन रखा था मैंने -
अनेक लोगों से 
उसके स्वाभिमान के बारे में।

अंततः एक दिन 
रोक ही लिया मैने उसे ।

पूछने पर बताया उसने 
जान बचाकर जलती हुई 
भागी थी ससुराल से , 
लेकर अपनी दूधमुंही बेटी को।

उमड़ी थी तब 
अनेक रिश्तों में करुणा 
अनचाही वासना युक्त हमदर्दी
ठुकरा दिया था जिसे मैने।

अब तो अरसा बीत गया है 
झौपड़ी में रहती हूँ 
भीख मांगकर
बेटी को पढ़ाती हूँ ।

इस साल जब नर्स बन जायेगी वह
ले सकूंगी , चैन की अंतिम साँस ।

बोली वह - बाबू , 
आजकल करुणा , दया, हमदर्दी 
सब दिखावा है , 
स्वारथ का पिटारा है।

समय रहते समझ गई थी इसे 
इसीलिए हमदर्दी की नहीं 
स्वाभिमान की भीख मांगती हूँ 
और आत्मसम्मान से जीती हूँ ।

      देवेंन्द्र सोनी , इटारसी।

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मंगलवार, 28 नवंबर 2017

प्रदूषण - मौत की रानी

 मैं राजा मेरे जीवन का, वो मौत की रानी 
बनकर, मेरी सांसें चुरा रही है 
धीरे - धीरे - धीरे, मौत आ रही है

 हर साँस में उसे महसूस करूँ 
हर पल वो मेरे करीब आ रही है 
धीरे - धीरे - धीरे, मौत आ रही है

मैं चाहकर भी कैसे भुला दूँ उसको 
वो मेरे जिंदगी का हर लम्हा चुरा रही है 
वो रात में, ख्वाब में, मुझे सत्ता रही है
धीरे - धीरे - धीरे, मौत आ रही है 

 - सुभाष वर्मा  


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शुक्रवार, 24 नवंबर 2017

इश्क़ कितना है


मोहब्बत पर हमारी इसक़दर उन्हे विश्वास हो जाए...
मोहबात पर हमारी इसक़दर उन्हे विश्वास हो जाए...
जिससे महबूब थोडा दिल के ओर पास हो जाए|
इश्क़ कितना है , बताएँगे तुम्हे कभी फ़ुर्सत में,
इश्क़ कितना है , बताएँगे तुम्हे कभी फ़ुर्सत में,
अभी तो बस सर्दी में, थोड़ी गर्मी का एहसास हो जाए|
हा हा हा... ये सर्दी...
(संतोष कुमार)

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- क्या है नैतिकता ?

जरा हटकर - लेख 

      सामान्यतः नीतिगत विचारों को , उसके सिद्धान्तों को व्यवहार में अपनाना ही नैतिकता कहलाता है। यह नीतिगत विचार और सिद्धान्त , देशकाल , समय तथा परिस्थितियों के अनुसार सबके लिए अलग -अलग हो सकते हैं । जब इनमें भिन्नता आती है तो उसे अनैतिकता का नाम दे दिया जाता है । 
        विचार करें तो पाते हैं - किसी के लिए भी झूठ बोलना अनैतिक है। कोई भी इससे असहमत नहीं लेकिन एक अधिवक्ता के लिए यही झूठ , कर्म में बदल कर नैतिकता के दायरे में आ जाता है। सभी मानते हैं - चोरी करना अनैतिक है ,  लेकिन जब यह कर्म में बदलता है तो करने वाले की रोजी रोटी का साधन बन जाता है । उसके लिए यह नैतिक है । स्त्री की देह (व्यापार ) का उपयोग कहीं नैतिक है तो अनैतिक भी है। कहीँ 5 पति होना नैतिक है , चार विवाह करना नैतिक है तो कहीं ये सब अनैतिक भी हैं । 
     कहने का तातपर्य सिर्फ इतना है कि नैतिकता - बहुत लचीली होती है । इसे एक सिद्धान्त या एक राय से संचालित नही किया जा सकता और न ही अपनाया जा सकता है । नैतिकता के सामान्य और सर्वमान्य सिद्धान्तों को स्वीकारते हुए , यदि हम उन्हें आचरण में लाते हैं तो वे धीरे धीरे हमारे संस्कार का रूप धारण कर लेते हैं , यहीं से फिर स्व संस्कृति का विकास होता है। यही संस्कार - ईश वंदना से लेकर तमाम सामाजिक ,पारिवारिक दायित्वों के निर्वहन का संवाहक बनता है । जिसे हम नैतिकता और आदर्श का नाम  दे देते हैं ।      
      किसी घर में बड़ों का चरण स्पर्श किया जाता है , किसी घर में गले लगाया जाता है । दोनो ही तरीके नैतिकता के दायरे में आते हैं पर कहीँ ये गलत हैं तो कहीं ये - सही हैं । अनेक उदहारण हैं ऐसे जो सोचने पर विवश करते हैं कि - आखिर क्या है नैतिकता ? कैसे बचाएं इसे ? एक ही उत्तर मिलता है मुझे - सर्वमान्य सिद्धान्तों और स्व आचरण को मानते हुए मर्यादा में अपना जीवन व्यतीत करें और लोकोपयोगी कार्य के सहभागी बनें। यही सबसे बड़ी नैतिकता है जिसे हम सप्रयास बचा सकते हैं । 
         - देवेंन्द्र सोनी , इटारसी।

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कश्मकश



जरा हटके - नई कविता 

रहती है जब भी 
मन में कश्मकश 
चलता है 
किसी बात को लेकर द्वंद
तब अधिकतर होता है ऐसा - 
खो देते हैं हम अपना विवेक ।

क्योंकि तब सुनते हैं हम -
केवल अपने मन की ।

मन अक्सर जुड़ा रहता है
किसी न किसी अस्थाई लोभ से 
जो हर लेता है उस वक्त
विवेक को हमारे।

दिखता है सिर्फ वही , वही 
छूट जाते हैं जिससे - 
कई रिश्ते - नाते और 
कभी कभी तो घर -परिवार भी।

गहरा नाता है -
वैचारिक द्वंद और विवेक का ।

इसलिए जरूरी है -
जब भी उठे मन में कोई द्वंद 
दें अपने विवेक को प्रधानता 
न करें कोई त्वरित निर्णय , एकतरफा। 

रह कर तटस्थ 
कर दें इसे समय के हवाले ।

समय कर देता है स्वतः ही 
हर द्वंद का उपचार
देता है जो अक्सर 
सुखद और सर्वहित के परिणाम ।

      - देवेंन्द्र सोनी , इटारसी।

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भारत में शिक्षा पद्धति कैसी हो ?


   -  राजेश कुमार शर्मा"पुरोहित"


अर्वाचीन काल मे भारत की शिक्षा मैकाले की शिक्षा पद्धति पर ही चल रही है। आज की शिक्षा मात्र नोकरी पाने हेतु क्लर्क तैयार कर सकती है। नैतिक व आध्यात्मिक शिक्षा का अभाव है। डिग्रियों का बोझ लिए आज के युवक युवतियां बेरोजगारी का रोना रो रहे हैं। 
   आज की शिक्षा न तो रोजगातपरक है और न ही संस्कारवान बनाने में सक्षम। बच्चों को इतिहास की घटनाएं नहीं पढ़ाई जा रही है। न तो वह सुभाषचन्द्र बोस,भगत सिंह न चंद्रशेखर आज़ाद के बारे में जानते है न कभी पढ़ा है। गांव के सरकारी स्कूलों के बच्चे गाँधीजी के अलावा किसी नेता के बारे में नहीं जानते। हमारे देश के क्रांतिकारियों के चित्र उन्होंने देखे नही। कैसी है हमारी शिक्षा व्यवस्था। जिन्होंने आज़ादी के लिए अपने प्राण दे दिए। जो अमर शहीद हैं। क्या आज पाठ्यक्रम में उनके पाठ हैं? देखने की आवश्यकता है । आज देश के हर विद्यालयों में क्रान्तिकातियो,महापुरुषों, सामाजिक सुधारकों,सच्चे देशसेवकों के चित्र लगाकर उनके संक्षिप्त परिचय को विद्यालयों में लगाने हेतु पाबंद करना चाहिए।

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मंगलवार, 21 नवंबर 2017

लघु कहानी - संगति

जरा हटकर - लघु कहानी - संगति 


       संगति का असर तो होता ही है , यह बात रमेश को उस समय समझ आई जब एक माह तक अपनी बुरी आदतों को छोड़कर वह सादगी से अपने कर्म में जुटा रहा । उसके व्यवहार परिवर्तन के बाद ही रमेश के " गुरु जी ' आज घर आ रहे थे। वह उनके आगमन से उत्साहित और प्रसन्न था । साथ ही उसे यह पछतावा भी हो रहा था कि - काश ! पहले ही उसे सच्चा मार्गदर्शन क्यों नही मिला । क्यों उसने अपने परिजनों की समझाइस पर ध्यान नही दिया ? पर कहते हैं ना - जब जागे तभी सबेरा । यही सबेरा अब रमेश की बर्बाद होती जिंदगी में खुशहाली लेकर आया था । उसे याद आ रहा था - कैसे अपने व्यवसाय को बढ़ाने के लिए वह गलत संगत का शिकार हुआ और शराब - शवाब को अंगीकार कर अपने हंसते - खेलते परिवार से धीरे - धीरे दूर होता चला गया । सुबह से रात तक सिगरेट शराब का आदि हो चुके रमेश को कई बार सबने समझाया पर उस पर कोई असर नही हुआ लेकिन जब व्यवसाय बैठ गया तो उसके एक मित्र ने उसे एक सिद्ध पुरुष से मिलवाया । कुछ सोचकर महात्मन ने रमेश से कहा - सब ठीक हो जाएगा पर इसके लिए तेरे घर में एक अनुष्ठान करना होगा। 
   अपनी अनेक परेशानियों से घिरे निराश रमेश ने इस हेतु सहर्ष स्वीकृति दे दी लेकिन गुरूजी ने घर में प्रवेश करने से इंकार कर दिया । रमेश ने जब कारण जानना चाहा तो अपने नेत्र बंद कर वे बोले - तेरे घर से शराब की बू आ रही है । ऐसे में मातारानी का अनुष्ठान नही हो सकता । तुझे सिगरेट और शराब छोड़ना होगी । यदि ऐसा कर सका तो एक माह बाद अनुष्ठान हो सकेगा जिससे तेरी सारी परेशानी दूर हो जाएगी और व्यवसाय फिर चल पड़ेगा । साथ ही परिवार में भी सुख शांति आ जाएगी। गुरूजी की बात सुनकर रमेश पशोपेश में पड़ गया लेकिन तुरन्त ही स्वयं को सम्हालते हुए उसने गुरूजी को वचन दे दिया कि - अभी से ही वह सिगरेट और शराब को हाथ नही लगाएगा और उसने यह कर दिखाया। 
   आज एक माह हो गया था । गुरूजी अनुष्ठान के लिये घर आ रहे थे । परिवार के सभी सदस्य खुशी खुशी अनुष्ठान और गुरूजी के स्वागत की तैयारी में जुटे थे। अनुष्ठान पूरा हुआ और कुछ ही दिनों में सार्थक परिणाम भी दिखने लगे । 
       रमेश ने दोनों प्रकार की संगत का असर देख लिया था । वह समझ  गया था - अच्छी और बुरी संगत के परिणामों को ।
    - देवेंन्द्र सोनी , इटारसी।

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रविवार, 19 नवंबर 2017

जुनून ऐ शिखर

बंदिश अगर लबों पर होती, महखाने और पबों पर होती
तो बातें तुम्हारी आँखों से होती, और नशा तुम्हारी सांसों से होता
   
यूँ टकराती आँखें,पैमाने सी खनक होती
यूँ टकराते जाम लबों से, और लहर सांसों में होती

लोग इश्क को यूँ बदनाम न करते, राह चलते यूँ सरेआम न करते   

हर कोई ढूंढ़ता “जुनून ऐ शिखर”, फिर नशे को यूँ बदनाम न करते 
 - सुभाष वर्मा 

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लेख - छीन रहे हैं बचपन , भारी होते बस्ते




        वर्तमान में बच्चों के भारी होते बस्तों से सभी त्रस्त हैं लेकिन प्रतिस्पर्धा और सबसे आगे रहने की चाह में खुलकर कोई भी इसका विरोध नही करता है और न ही खुद से कोई पहल ही करता है  क्योंकि बदले समय के लिहाज से अब यह आवश्यक लगता है।
       डिजिटल युग में आज बच्चों की मनोवृत्ती भी बदल गई है । परिस्थितिवश खेल कूद और अन्य गतिविधियों से उनका मोह भंग हो गया है । मैदानी अभिरुचि का स्थान किताबों और यांत्रिकता ने ले लिया है। मोबाइल और कम्प्यूटर भी आधुनिक शिक्षा के पर्याय बनते जा रहे हैं ।

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अरमान



जरा हटके - नई कविता 

कितने अरमान मचलते हैं
मन के अंगना में हमारे
जुटे रहते हैं -
पूरा करने में इन्हें 
जीवन भर हम ।

चैन से सोने भी नहीं देते हैं ये
सहोदर होती हैं इनकी
नित नई उलझनें और चिन्ताएं
जो दुस्वार कर देती है जीवन हमारा ।

अरमानों को जब तक 
नियंत्रित करना नहीं सीखेंगे हम 
तब तक नैराश्य और अवसाद
का घर बना रहेगा , मन में हमारे। 

मुक्ति पा नी ही होगी हमको
अरमानों की बहुलता से 
होना ही होगा संतुष्ट इससे कि
जो मिला है और निरन्तर मिल रहा है
बहुत है वह , औरों की अपेक्षा।

देखा है मैने , उन्हें भी जो
रहते हैं बिंदास फुटपाथ पर
दो जून की रोटी कहीँ से भी पाकर 
और उन्हें भी देखा है - जो,
सोते हैं सुकून से 
हाड़-तोड़ मेहनत के बाद भी
पत्थरों पर ।

ज्यादा फर्क नही है ,
उनमें और हम में 
वे भी हाड़-मांस के पुतले हैं
और हम भी वही हैं ।

फर्क है तो बस इतना -
वे उन अरमानों से मुक्त 
रखते हैं खुद को ,
जिन्हें हम पालते रहते हैं
अदम्य जिजीविषा के चलते
मन में अपने । 

नही कहता - 
बुरा है अरमानों में जीना 
पर जिएं भी तो 
जीने की ही तरह । 

      - देवेंन्द्र सोनी , प्रधान सम्पादक
        युवा प्रवर्तक, इटारसी ।

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मंगलवार, 14 नवंबर 2017

बचपन के वो पल सुहाने



जरा हटके - नई कविता 

याद आते हैं , दिन पुराने 
बचपन के वो खेल - तमाशे
थे कितने वे पल सुहाने । 

लुका - छिपी खेलते - खेलते
खो - खो में खो जाना
गिल्ली हो या गेंद लपकने
जी भर दौड़ लगाना ।

लँगड़ी , पिट्ठू या कबड्डी 
रोज ही मन ललचाते थे 
इतने पर भी लगे अधूरा , तो
दंड - बैठक खूब लगाते थे । 

जाने कितनी है यादें , जो
भूली बिसरी सी लगती है ।

पाठशाला से मिली जो शिक्षा
आज नहीं बिसराती है।
जीवन में पल - पल , अब भी 
काम वही आती है । 

बीता समय , बीती बातें 
याद बहुत आती हैं ।

दिखते नहीं अब खेल पुराने
बदल गए हैं रिश्तों के माने
मस्ती के दिन अब हुए हवा
जीवन के ये कैसे ताने - बाने ।

परियों की वे कथाएं ,
दादी - नानी जो सुनाती थी ।
छिपे मर्म उनमे जो रहते
अंतस में चिपकाती थीं । 

ज्ञानी - ध्यानी ,वीर - महापुरुषों से
नाना - दादा मिलवाते थे ।
बातों ही बातों में , वे 
जीवन का पाठ पढ़ाते थे।

बीता समय और बीती बातें
अब याद बहुत आतीं हैं ।

हमने जो देखा - समझा 
साथ बड़ों के रहकर 
सिखा न सकते अब हम
बच्चों को सब कुछ भी देकर ।

नया जमाना , नई बातें 
कम ही हर्षाती हैं ।
रह - रह कर बीते दिनों की
याद बहुत आती है ।

              - देवेंन्द्र सोनी , इटारसी।

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अजीब तेरा-मेरा इश्क


अजीब है ना तेरा इश्क
मुझे तेरी आँखों में दिखता नहीं
और तेरी जुवां पे टिकता भी नहीं
तुझसे वफ़ा करते बनता भी नहीं
और बेवफाई का पड़ा पर्दा हटता भी नहीं
गिरगिट जैसा रंग तेरा एक रंग में तू ढलता नहीं
बातें है चाशनी से तर बिन मक्खन के जिन पे काम चलता नहीं
इन सब के वाबजूद भी तू मेरी नजरों से गिरता नहीं
और अपनी उस पुरानी छवि से ऊंचा उठता भी नहीं
अजीब है ना मेरा भी तुझसे इश्क
जो
चीखों पर भी राहत गहन करता नहीं
चोट पर भी अगले कदम को सम्भलता नहीं
चाहने के गुनाह से हरगिज बचता नहीं
ना चाहने का गुनाह भूलकर भी  करता नहीं।

Written By Ritika{Preeti} Samadhiya... Please Try To Be A Good Human Being....✍

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शुक्रवार, 10 नवंबर 2017

ये दिल ❤


ना तुमने कभी मुझे समझा
ना तुमने कभी मुझे जाना
ये दिल फिर भी तुम पे मरता हैं
ये दिल फिर भी तुम्हें प्यार करता है

रहोगे कब तलक जाली सलामों  में
चलोगे कब तलक झूठी शानों में
खो  जाएगी एक न एक दिन सोच तुम्हारी मेरी चाहत के महखाने में

फरक तुम पर नहीं पड़ता तुम हो कुछ ऐसे गुमानो में
राह थामी तुमने जिसका मंजिल से ना वास्ता ना ही पता ठिकानों में
आओगे थक कर तुम एक न एक दिन मेरे ही आशियाने में

ना तुमने कभी मुझे समझा
ना तुमने कभी मुझे जाना 
ये दिल फिर भी तुमपे मरता है
ये दिल फिर भी तुम्हें प्यार करता हैं

वस्ल की राते गुजरती तुम्हारी हर हसीना के नजराने में
बहकते हो तुम दिन में भी जिस्म की खुशबू के तराने में
रोओगे जरूर एक न एक दिन तुम मेरी याद के बीते जमाने में

कर-कर अपनी मनमानी मजाक बनाते मेरा तुम अपने यारों के गुठ को और रंगीन बनाने में
भरता ना दिल तुम्हारा तो जिद्द कर जाते मुझसे ही मेरी हालत बयाँ करवाने में
देख लेना वादा है तुमसे ये मेरा तरस जाओगे तुम एक दिन और बिखर भी जाओगे तुम उसी दिन फिर से मुझ जैसी महबूबा पाने में।

न तुमने कभी समझा
न तुमने कभी जाना
ये दिल फिर भी तुमपे मरता है
ये दिल फिर भी तुम्हें प्यार करता है।

Written By  Ritika {Preeti} Samadhiya.... Please Try To Be A Good Human Being...✍

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गुरुवार, 9 नवंबर 2017

अभिव्यक्ति - आधुनिक जीवन शैली में रिश्तों की सार्थकता

जरा हटके - लेख -
आधुनिक जीवन शैली में रिश्तों की सार्थकता

     जीवन शैली पुरातन हो या आधुनिक, रिश्तों की सार्थकता पर प्रश्न सदैव उठते रहे हैं । जहां रिश्ते होंगे वहां प्यार , दुलार , मनुहार भी होगा और मन मुटाव या झगड़े भी होंगे ही । मेरी नजर में रिश्तों का स्वरूप सदैव स्थाई होता है लेकिन उसका महत्व कम या ज्यादा होता रहता है । यहीं से उनकी सार्थकता या निरर्थकता का आंकलन होता है। 
     रिश्ते दो तरह के होते हैं । एक - खून का रिश्ता और दूसरा धर्म का रिश्ता । पहली तरह के रिश्तों की परिभाषा हम सब जानते हैं । दूसरी तरह का रिश्ता अर्थात धर्म का रिश्ता मैं उसे मानता हूँ जो किसी से मानसिक और भावनात्मक लगाव के कारण बनता है । इसे मैं सिर्फ मित्र की श्रेणी में रखता हूँ । इसमें आभाषी और व्यक्तिगत जुड़ाव शामिल है। इन रिश्तों का स्वरूप धर्म के भाई बहन का भी होता है जो मित्रवत ही होते हैं। दैहिक आकर्षण युक्त रिश्तों को मैं अस्थाई मानता हूँ। यहां अपवाद हो सकते हैं ।


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मित्र


एक मित्र ऐसा हो
दिल मे धड़कन जैसा हो
एक मित्र ऐसा हो
आंखों में नूर जैसा हो
एक मित्र ऐसा हो
सीने में सांसो जैसा हो
एक मित्र ऐसा हो
सागर में नमक जैसा हो
एक मित्र ऐसा हो
सुई में धागे जैसा हो
एक मित्र ऐसा हो
फूलो में खुशबू जैसा हो
एक मित्र ऐसा हो
जीवन में खवाबों जैसा हो
एक मित्र ऐसा हो
गंगा में पावनता जैसा हो
एक मित्र ऐसा हो
होठों पे हसीं जैसा हो
एक मित्र ऐसा हो
मंदिर में मूर्त जैसा हो
एक मित्र ऐसा हो
सूरज की किरण जैसा हो
एक मित्र ऐसा हो
मोहब्बत में वफ़ा जैसा हो
एक मित्र ऐसा हो
शायरी में दर्द जैसा हो
एक मित्र ऐसा हो
अंधेरो में दीप जैसा हो
एक मित्र ऐसा हो
दर्द में टीस जैसा हो
एक मित्र ऐसा हो
इन्द्रधनुष में रंग जैसा हो
एक मित्र ऐसा हो
कृष्ण सुदामा जैसा हो
एक मित्र ऐसा हो 
जो बिल्कुल तेरे जैसे हो
जो बिल्कुल तेरे जैसा हो......


@प्रदीप सुमनाक्षर










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बुधवार, 8 नवंबर 2017

बाटा वाली चप्पल


मिट्टी मे मिट्टी होकर हम खेल खेलते थे
पूरा होने से पहले ही बिगाड चुके होते थे
झगडकर एक दूसरे के फिर बाल नोचते थे
कुछ इस तरह खत्म होता था एक खेल
फिर हम दूसरा खेलते थे
वो बचपन महान था ना दोस्तो
जब बाटा वाली चप्पल जोडकर पहनते थे

जब घर मे सब बच्चो के नए कपडे आते थे
छोटे को वही चाहिए जो बडे के होते थे
कपडो के रंगो पर भी तो कितने झगडे होते थे
ये वो फैसले थे जो कभी नही होते थे
और हम अपने नए कपडे जूते साथ लेकर कंबल मे सोते थे
वो बचपन सच मे महान था दोस्तो
जब बाटा वाली चप्पल जोडकर पहनते थे

असली तूफां तो घर मे उस वक्त आ जाते थे
जब भाई मेरी गुडिया का मुंडन कर देते थे
रोता देख मुझे माँ पापा मेरी तरफ होते थे
सिर्फ डांट खिलाकर शांत नही होती थी मै
मैने भी उसके हैलीकाप्टर के पंख तोड दिए थे
वो बचपन सच मे महान था दोस्तो
जब बाटा वाली चप्पल जोडकर पहनते थे

रात को आफिस से जब पापा घर आते थे
जान बूझकर सोने का दिखावा करते थे
अचानक जागकर उनको डरा देते थे
पापा भी डरने का नाटक बखूबी करते थे
फिर एक दूसरे की शिकायते करते हुए सोते थे
वो बचपन महान था ना दोस्तो
जब बाटा वाली चप्पल जोडकर पहनते थे

हर दिन माँ पापा हमे नए नाम से बुलाते थे
प्यार जताने के उनके ओर भी बहोत तरीके थे
कब नहीं छलके थे उनके आँसू 
जब कभी सिर तो कभी हमारे घुटने फूटे थे
बेशक वो दौडकर हमे डाक्टर तक ले जाते थे
पर वो फूंक वाले मरमह ज्यादा असर करते थे
वो बचपन महान था ना दोस्तो
जब बाटा वाली चप्पल जोडकर पहनते थे

~Anupama verma

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मंगलवार, 7 नवंबर 2017

मगरूर

जरा हटके - नई कविता



आते हैं जब 
इस दुनिया में हम
कितने सहज , सौम्य और 
निश्छल होते हैं ।

धीरे-धीरे होते हैं प्रभावित
और अपनाने लगते हैं 
उस वातावरण को , जो
कराता है हमसे मनमानी ,
बनाता है क्रमशः हमको मगरूर ।

सिखाने लगता है
दुनियादारी और
बोने लगता है 
मन में हमारे 
बीज मगरूरता के ,
करते रहने को मनमानी।

हाँ , हर कहीं भी नहीं पनपते हैं 
मगरूरता और मनमानी के ये बीज 
इन्हें चाहिए होता है
वह खाद - पानी भी 
जो मिल जाता है आसानी से
हमारे ही आस- पास  के परिवेश में ।

बदलते युग में मिल रही
मनचाही सुविधाएं भी 
एक बड़ा कारण होता है
मगरूर और मनमौजी होने का हमारे 
उन सबके बीच जो
वंचित हैं इन सुविधाओं से ।

मगरूर या मनमर्जी के होना 
कोई अच्छी निशानी नही है
व्यक्तित्व के हमारे
मगर करते कहाँ हैं 
परवाह हम इसकी ।

यही लापरवाही, अनदेखी
कर देती है हमारे अंदर 
मगरूर और मनमर्जी के 
पेड़ को इतना बड़ा
कि जब वह होता है फलित तो
देने लगता है ऐसे विषैले फल
जो करते हैं , केवल और केवल
हमारा ही संहार ।

सोचना और लाना होगा 
वह परिवर्तन जो 
बचा दे हमको 
मगरूरता या मनमर्जी के इस पेड़ से 
और सफल कर दे , 
जीवन हमारा ।

          - देवेंन्द्र सोनी, प्रधान संपादक
           युवा प्रवर्तक , इटारसी ।

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