शनिवार, 16 दिसंबर 2017

जरा हटकर - छवि


रोज ही देखता हूँ , मैं
दर्पण में अपनी बदलती हुई छवि


पल पल बदलते रहना ही
खासियत होती है इसकी
जो क्रमशः इठलाती हुई 
बढ़ती है शिखर की ओर,
और फिर अचानक से शिथिल हो
लुढ़कने लगती है वहां से 
कराते हुए यह एहसास, कि
नहीं रह सकता कोई 
शिखर पर आजीवन।


लुढ़कते हुए ही आना होता है उसे 
फिर जमीं पर ।

छवि कहती है - 
देखो मुझे नित्य ही 
और सीखो यह -
धरा पर आए हो 
सिर्फ धरा के लिए। 


फिर ये गुमान , कैसा ?

       - देवेंन्द्र सोनी , इटारसी।

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