सोमवार, 9 मई 2022

एक बार मैं कहीं जा रहा था


एक बार मैं कहीं जा रहा था--
खुशियों के दरिया से मानो गमों के समंदर में मैं आ रहा था जिन तकलीफों को कम आंका था मैंने--
अब उन्हीं मुसीबतों में मैं एकाएक समा रहा था 
एक बार मैं कहीं जा रहा था।

जरा ठहरा देखने को
कि कितनी दूरी आखिर मेरे कदमों में ढांकी है 
और फासला अभी और कितना बाकी है--
आंखों में था सैलाब मेरी सांसो में हौसलों का दरिया था--
टूटना तो था ही इक दिन--
तोड़ने वाला तो बस एक जरिया था 
बस यूं ही खुद ही खुद की मुसीबत बनकर 
खुद ही खुद पर मैं जुल्म ढा रहा था--
एक बार में कहीं जा रहा था।---

जरा चलते-चलते थक कर बैठ गया 
और पूछा खुद से की आखिर तेरा क्या इरादा है--
बादशाहत है मंजिल तेरी या तू भी बस एक प्यादा है 
माना दिया गम खुदा ने सबकी जिंदगी में लेकिन 
दर्द फिर भी तेरा ही ज्यादा है--
बस यूं ही चलते चलते मैं अपने दुखड़े गा रहा था 
एक बार मैं कहीं जा रहा था।--

अब बस यूं ही ये रेत सा ये वक्त मेरी मुट्ठी से फिसलता जा रहा है--
अंतहीन सा ये रास्ता बस यूं ही आगे चलता जा रहा है
फर्क है तो बस इतना सा कि किसी के हैं कंधे हल्के तो किसी के ऊपर वज़न बहुत भारी है--
और कहां ढूंढू में अंत इस सफर का यह सफर मेरा अब भी जारी है।--
 ~ यस पाठक


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सोमवार, 2 मई 2022

" हिन्दी का मायका हिन्दुस्तान "

 - डाँ . सुरेन्द्र दत्त सेमल्टी

राष्ट्र  धरोहर   हिन्दी  है  जो ,
लगती  बड़ी  मनोहर  है ओ ।

बहुत  पुरानी  है  यह  भाषा ,
इस पर टिकी सबकी आशा ।

इतिहास  है   सुदीर्घ  इसका ,
ज्ञान नहीं है सबको जिसका ।

साहित्य की  विविध  विधायें ,
इस  भाषा  को  पढ़कर पायें ।

माँ  की  ममता  होती  जैसी ,
यह  भाषा भी लेती  वैसी  !

मिठास  इसमें  जैसी शक्कर ,
सब भाषाओं से लेती टक्कर  !

बड़ी सरल है  सब अपनाओ ,
इसका यश  जग में  फैलाओ ।

बतलाते कठिन  इसको कुछ  ,
लगता  उनकी बुद्धि  है तुच्छ ।

यह  लिखने-पढ़ने में आसान ,
इसे अपना कर  समझें  शान ।

हिन्दी का मायका हिन्दुस्तान ,
सब जन करें इसका सम्मान ।

वैज्ञानिक गुणों से यह भरपूर ,
और भाषायें सब चकना चूर ।

देवनागरी   लिपि   है  इसकी ,
तुलना नहीं किसी से जिसकी ।

हिन्दी  में  बना  है   संविधान ,
मिलकर  बढा़यें  इसका मान ।

सजती  माथे पर  ज्यों बिन्दी ,
विश्व में  छायेगी  भाषा हिन्दी ।

गर्व है  हमको  इस  भाषा पर ,
करें  प्रतिज्ञा  अपनायेगा   हर ।

स्वर-व्यंजन की इसमें सुविधा ,
किसी तरह की नहीं है दुविधा ।

हिन्दी भाषा  रही  सदा महान ,
सद्गुणों  की   है   यह   खान ।

इस भाषा में बोलें-लिखें सभी ,
विकास  पथ  पर  बढ़ेंगे  तभी ।

---------------------------------- ---
ग्राम/पो. पुजार गाँव ( चन्द्र वदनी )
द्वारा - हिण्डोला खाल
जिला - टिहरी गढ़वाल -249122 ( उत्तराखण्ड )
मोवाईल नंबर - 9690450659
ई मेल आईडी -
dr.surendraduttsemalty@gmail.com


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" बचपन के दिन "

~ डॉ.सुरेन्द्र दत्त सेमल्टी

ओ भी  क्या दिन थे बचपन के ,
आज  मुझे  बहुत  हैं  ओ भाते !
चाहता भूलना पर भूल न पाता ,
पल - पल  याद  सभी हैं  आते ।। 1 ।।

कभी  रूठना  -  गुस्सा  करना ,
हँसना - रोना  और   चिल्लाना ।
पापाजी  ने  यदि  डाँट  लगाई ,
गोदी मे  मम्मी की  छुप जाना ।। 2 ।।

इच्छा से पढ़ना खेलना कूदना ,
छुपकर के खूब मौज  मनाना ।
पकड़े  गये  रंगे हाथ जो यदि ,
बहाने   तरह  -  तरह  बनाना ।। 3 ।।

साथियों के संग झगड़ा करना ,
तो कभी  मिल  एक हो जाना ।
सर-मैडम यदि आवाज लगादें ,
डरकर के  चुपचाप  हो  जाना ।। 4 ।।

नजर बचाकर  नटखट  करना ,
हम  सबको   खूब  था   भाता ।
कोई शिकायत  करता था जब ,
तब  मैं तो था  बहुत  घबराता ।। 5 ।।

पढ़-लिख तब जीवन तरासना ,
लगता था पहाड़ सा अतिभारी ।
लेकिन  उसी  तप के प्रतिफल ,
सफलतायें मिली  हमें ये सारी ।।6 ।।

---------------------------------------------
मोथरोवाला , फाइरिंग रेंज ( सैनिक कॉलोनी )
लेन नंबर - 3 , फेज - 2
निकट - महालक्ष्मी हार्डवेयर
देहरादून - 248115 ( उत्तराखंड )
मोबाईल नंबर - 9690450659
ईमेल आईडी -
dr.surendraduttsemalty@gmail.com


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मंगलवार, 9 नवंबर 2021

युवा कवि गोलेन्द्र पटेल की कुछ कविताएँ



1).
लकड़हारिन
(बचपन से बुढ़ापे तक बाँस)
••••••••••••••••••••••••••••••

तवा तटस्थ है चूल्हा उदास
पटरियों पर बिखर गया है भात
कूड़ादान में रोती है रोटी
भूख नोचती है आँत
पेट ताक रहा है गैर का पैर

खैर जनतंत्र के जंगल में
एक लड़की बिन रही है लकड़ी
जहाँ अक्सर भूखे होते हैं
हिंसक और खूँखार जानवर
यहाँ तक कि राष्ट्रीय पशु बाघ भी
 
हवा तेज चलती है
पत्तियाँ गिरती हैं नीचे
जिसमें छुपे होते हैं साँप बिच्छू गोजर
जरा सी खड़खड़ाहट से काँप जाती है रूह
हाथ से जब जब उठाती है वह लड़की लकड़ी
मैं डर जाता हूँ...!


2).
किसान है क्रोध
•••••••••••••••••

निंदा की नज़र
तेज है
इच्छा के विरुद्ध भिनभिना रही हैं
बाज़ार की मक्खियाँ

अभिमान की आवाज़ है

एक दिन स्पर्द्धा के साथ
चरित्र चखती है
इमली और इमरती का स्वाद
द्वेष के दुकान पर

और घृणा के घड़े से पीती है पानी

गर्व के गिलास में
ईर्ष्या अपने
इब्न के लिए लेकर खड़ी है
राजनीति का रस

प्रतिद्वन्द्विता के पथ पर

कुढ़न की खेती का
किसान है क्रोध !


3).
मूर्तिकारिन
•••••••••••••

राजमंदिरों के महात्माओं
मौन मूर्तिकार की स्त्री हूँ

समय की छेनी-हथौड़ी से
स्वयं को गढ़ रही हूँ

चुप्पी तोड़ रही है चिंगारी!

सूरज को लगा है गरहन
लालटेनों के तेल खत्म हो गए हैं

चारो ओर अंधेरा है
कहर रहे हैं हर शहर

समुद्र की तूफानी हवा आ गई है गाँव
दीये बुझ रहे हैं तेजी से
मणि निगल रहे हैं साँप

और आम चीख चली -
दिल्ली!


4).
ईर्ष्या की खेती
••••••••••••••••

मिट्टी के मिठास को सोख
जिद के ज़मीन पर
उगी है
इच्छाओं के ईख

खेत में
चुपचाप चेफा छिल रही है
चरित्र
और चुह रही है
ईर्ष्या

छिलके पर  
मक्खियाँ भिनभिना रही हैं
और द्वेष देख रहा है
मचान से दूर
बहुत दूर
चरती हुई निंदा की नीलगाय !


5).
उम्मीद की उपज
•••••••••••••••••

उठो वत्स!
भोर से ही
जिंदगी का बोझ ढोना
किसान होने की पहली शर्त है
धान उगा
प्राण उगा
मुस्कान उगी
पहचान उगी
और उग रही
उम्मीद की किरण
सुबह सुबह
हमारे छोटे हो रहे
खेत से….!


6).
ऊख
••••••••••••••

(१)
प्रजा को
प्रजातंत्र की मशीन में पेरने से
रस नहीं रक्त निकलता है साहब

रस तो
हड्डियों को तोड़ने
नसों को निचोड़ने से
प्राप्त होता है
(२)
बार बार कई बार
बंजर को जोतने-कोड़ने से
ज़मीन हो जाती है उर्वर

मिट्टी में धँसी जड़ें
श्रम की गंध सोखती हैं
खेत में
उम्मीदें उपजाती हैं ऊख
(३)
कोल्हू के बैल होते हैं जब कर्षित किसान
तब खाँड़ खाती है दुनिया
और आपके दोनों हाथों में होता है गुड़!



7).
मेरे मुल्क की मीडिया
••••••••••••••••••••••••

बिच्छू के बिल में
नेवला और सर्प की सलाह पर
चूहों के केस की सुनवाई कर रहे हैं-
गोहटा!

गिरगिट और गोजर सभा के सम्मानित सदस्य हैं
काने कुत्ते अंगरक्षक हैं
बहरी बिल्लियाँ बिल के बाहर बंदूक लेकर खड़ी हैं

टिड्डे पिला रहे हैं चाय-पानी

गुप्तचर कौएं कुछ कह रहे हैं
साँड़ समर्थन में सिर हिला रहे हैं
नीलगाय नृत्य कर रही हैं

छिपकलियाँ सुन रही हैं संवाद-
सेनापति सर्प की
मंत्री नेवला की
राजा गोहटा की....

अंत में केंचुआ किसान को देता है श्रधांजलि
खेत में

और मुर्गा मौन हो जाता है
जिसे प्रजातंत्र कहता है मेरा प्यारा पुत्र
मेरे मुल्क की मीडिया!


8).
श्रम का स्वाद
••••••••••••••

गाँव से शहर के गोदाम में गेहूँ?
गरीबों के पक्ष में बोलने वाला गेहूँ
एक दिन गोदाम से कहा
ऐसा क्यों होता है
कि अक्सर अकेले में अनाज
सम्पन्न से पूछता है
जो तुम खा रहे हो
क्या तुम्हें पता है
कि वह किस जमीन की उपज है
उसमें किसके श्रम का स्वाद है
इतनी ख़ुशबू कहाँ से आई?
तुम हो कि
ठूँसे जा रहे हो रोटी
निःशब्द!


9).
मुसहरिन माँ
•••••••••••••••

धूप में सूप से
धूल फटकारती मुसहरिन माँ को देखते
महसूस किया है भूख की भयानक पीड़ा
और सूँघा मूसकइल मिट्टी में गेहूँ की गंध
जिसमें जिंदगी का स्वाद है

चूहा बड़ी मशक्कत से चुराया है
(जिसे चुराने के चक्कर में अनेक चूहों को खाना पड़ा जहर)
अपने और अपनों के लिए

आह! न उसका गेह रहा न गेहूँ
अब उसके भूख का क्या होगा?
उस माँ का आँसू पूछ रहा है स्वात्मा से
यह मैंने क्या किया?

मैं कितना निष्ठुर हूँ
दूसरे के भूखे बच्चों का अन्न खा रही हूँ
और खिला रही हूँ अपने चारों बच्चियों को

सर पर सूर्य खड़ा है
सामने कंकाल पड़ा है
उन चूहों का
जो विष युक्त स्वाद चखे हैं
बिल के बाहर
अपने बच्चों से पहले

आज मेरी बारी है साहब!


10).
👁️आँख👁️
••••••••••••••

1.
सिर्फ और सिर्फ देखने के लिए नहीं होती है आँख
फिर भी देखो तो ऐसे जैसे देखता है कोई रचनाकार
2.
दृष्टि होती है तो उसकी अपनी दुनिया भी होती है
जब भी दिखते हैं तारे दिन में, वह गुनगुनाती है आशा-गीत
3.
दोपहरी में रेगिस्तानी राहों पर दौड़ती हैं प्यासी नजरें
पुरवाई पछुआ से पूछती है, ऐसा क्यों?
4.
धूल-धक्कड़ के बवंडर में बचानी है आँख
वक्त पर धूपिया चश्मा लेना अच्छा होगा
यही कहेगी हर अनुभव भरी, पकी उम्र
5.
आम आँखों की तरह नहीं होती है दिल्ली की आँख
वह बिल्ली की तरह होती है हर आँख का रास्ता काटती
6.
अलग-अलग आँखों के लिए अलग-अलग
परिभाषाएँ हैं देखने की क्रिया की
कभी आँखें नीचे होती हैं, कभी ऊपर
कभी सफेद होती हैं तो कभी लाल !


11).
चिहुँकती चिट्ठी
•••••••••••••••••

बर्फ़ का कोहरिया साड़ी
ठंड का देह ढंक
लहरा रही है लहरों-सी
स्मृतियों के डार पर

हिमालय की हवा
नदी में चलती नाव का घाव
सहलाती हुई
होंठ चूमती है चुपचाप
क्षितिज
वासना के वैश्विक वृक्ष पर
वसंत का वस्त्र
हटाता हुआ देखता है
बात बात में
चेतन से निकलती है
चेतना की भाप
पत्तियाँ गिरती हैं नीचे
रूह काँपने लगती है

खड़खड़ाहट खत रचती है
सूर्योदयी सरसराहट के नाम
समुद्री तट पर

एक सफेद चिड़िया उड़ान भरी है
संसद की ओर
गिद्ध-चील ऊपर ही
छिनना चाहते हैं
खून का खत

मंत्री बाज का कहना है
गरुड़ का आदेश आकाश में
विष्णु का आदेश है

आकाशीय प्रजा सह रही है
शिकारी पक्षियों का अत्याचार
चिड़िया का गला काट दिया राजा
रक्त के छींटे गिर रहे हैं
रेगिस्तानी धरा पर
अन्य खुश हैं
विष्णु के आदेश सुन कर

मौसम कोई भी हो
कमजोर....
सदैव कराहते हैं
कर्ज के चोट से

इससे मुक्ति का एक ही उपाय है
अपने एक वोट से
बदल दो लोकतंत्र का राजा
शिक्षित शिक्षा से
शर्मनाक व्यवस्था

पर वास्तव में
आकाशीय सत्ता तानाशाही सत्ता है
इसमें वोट और नोट का संबंध धरती-सा नहीं है
चिट्ठी चिहुँक रही है
चहचहाहट के स्वर में सुबह सुबह
मैं क्या करूँ?


12).
जोंक
•••••••••••••••••

रोपनी जब करते हैं कर्षित किसान ;
तब रक्त चूसते हैं जोंक!
चूहे फसल नहीं चरते
फसल चरते हैं
साँड और नीलगाय.....
चूहे तो बस संग्रह करते हैं
गहरे गोदामीय बिल में!
टिड्डे पत्तियों के साथ
पुरुषार्थ को चाट जाते हैं
आपस में युद्ध कर
काले कौए मक्का बाजरा बांट खाते हैं!
प्यासी धूप
पसीना पीती है खेत में
जोंक की भाँति!
अंत में अक्सर ही
कर्ज के कच्चे खट्टे कायफल दिख जाते हैं
सिवान के हरे पेड़ पर लटके हुए!
इसे ही कभी कभी ढोता है एक किसान
सड़क से संसद तक की अपनी उड़ान में!

■■★■■ संक्षिप्त परिचय :-

नाम : गोलेन्द्र पटेल
उपनाम : गोलेंद्र ज्ञान
जन्म : 5 अगस्त, 1999 ई.
जन्मस्थान : खजूरगाँव, साहुपुरी, चंदौली, उत्तर प्रदेश।
शिक्षा : बी.ए. (हिंदी प्रतिष्ठा) , बी.एच.यू.।
भाषा : हिंदी
विधा : कविता, कहानी, निबंध व आलोचना।
माता : उत्तम देवी
पिता : नन्दलाल

पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन :
कविताएँ और आलेख -  'प्राची', 'बहुमत', 'आजकल', 'व्यंग्य कथा', 'साखी', 'वागर्थ', 'काव्य प्रहर', 'प्रेरणा अंशु', 'नव निकष', 'सद्भावना', 'जनसंदेश टाइम्स', 'विजय दर्पण टाइम्स', 'रणभेरी', 'पदचिह्न', 'अग्निधर्मा', 'नेशनल एक्सप्रेस', 'अमर उजाला', 'पुरवाई', 'सुवासित' आदि प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रमुखता से प्रकाशित।

विशेष : कोरोनाकालीन कविताओं का संचयन "तिमिर में ज्योति जैसे" (सं. प्रो. अरुण होता) में मेरी दो कविताएँ हैं।

प्रसारण : राजस्थानी रेडियो, द लल्लनटॉप , वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार एवं अन्य यूट्यूब चैनल पर (पाठक : स्वयं संस्थापक)
अनुवाद : नेपाली में कविता अनूदित

काव्यपाठ : अनेक राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय काव्यगोष्ठियों में कविता पाठ।

सम्मान : अंतरराष्ट्रीय काशी घाटवॉक विश्वविद्यालय की ओर से "प्रथम सुब्रह्मण्यम भारती युवा कविता सम्मान - 2021" और अनेक साहित्यिक संस्थाओं से प्रेरणा प्रशस्तिपत्र।

संपर्क :
डाक पता - ग्राम-खजूरगाँव, पोस्ट-साहुपुरी, जिला-चंदौली, उत्तर प्रदेश, भारत।
पिन कोड : 221009
व्हाट्सएप नं. : 8429249326
ईमेल : corojivi@gmail.com



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शुक्रवार, 17 सितंबर 2021

पुस्तक समीक्षा

 पुस्तक समीक्षा >> 

 उपन्यास  श्रृंख्ला "ठगमानुष" लेखक सुभाष वर्मा द्वारा लिखी गई एक मनोरंजक हिंदी अपराध कथा उपन्यास श्रृंखला है।  उपन्यास 1850 के दशक के भारत में सेट हैं और सभी रोमांच चाहने वालों के लिए एड्रेनालाईन से भरे पढ़ने का वादा करते हैं। कहानी कुख्यात ठग जगीरा उर्फ ठगमानुष के उदय के इर्द-गिर्द घूमती है।

यदि आप एक अनुभवी लेखक से पढ़ने के लिए एक मनोरंजक, आधुनिक हिंदी अपराध कथा उपन्यास की तलाश में हैं, तो आगे न देखें। ठगमानुष भारत के अंधेरे पक्ष में स्थापित एक दिलचस्प उपन्यास श्रृंखला है। यह आपको ट्विस्ट और टर्न पर ले जाएगा क्योंकि नायक जगीरा अपने अन्य ठग साथियों के साथ लूट की यात्रा पर निकला है।   

    भारत में ठगों के बारे में एक रोमांचक अपराध कथा उपन्यास श्रृंखला, ठगमानुष गिरोहों और गैंगस्टरों की अंधेरी और क्रूर दुनिया को जीवंत करता है जो निश्चित रूप से आपकी रुचि को बनाए रखता है। यह भारत में गिरोहों और गैंगस्टरों के अंडरवर्ल्ड के बारे में एक कहानी है - एक्शन, साज़िश और रहस्य से भरपूर।

    यह सीरीज एक मास मर्डर थ्रिलर है जो आज से 150 साल पहले के समय में सेट की गई है। ठगों का एक खतरनाक गिरोह लोगों की हत्या कर रहा है और शहर को आतंकित कर रहा है। दस साल से इन ठगों का पीछा कर रहा नायक, एक अंग्रेज, इस मामले में फंस जाता है और इसे सुलझाने की कोशिश करता है। जैसे-जैसे घटनाएँ घटती हैं कहानी सामने आती है और हमें गिरोह और उनके उद्देश्यों के बारे में पता चलता है, और अप्रत्याशित मोड़ आते हैं!

    भारत में स्थापित एक रोमांचक अपराध कथा उपन्यास श्रृंखला, ठगमानुष भय, बदला और अराजकता की कहानी है। श्रृंखला महानगरीय भारत की आपराधिक दुनिया का परिचय है, जहां अधिकांश आपराधिक गतिविधियों को दो गिरोहों - जगीरा गिरोह और पिंडारी गिरोह द्वारा नियंत्रित किया जाता है।

    इस तेज़-तर्रार क्राइम थ्रिलर में, नायक अंग्रेजों का एक जासूस है, जो एक हत्यारे को खोजने के लिए एक जटिल यात्रा पर है। क्या और जानें जाने से पहले क्या वह अपराधी को ढूंढ पाएगा? जैसे-जैसे वह सच्चाई के करीब आता जाता है, उसे अपनी पिछली गलतियों से भी निपटना पड़ता है और छुटकारे की तलाश करनी पड़ती है।

लेखन शैली :

    ठगमानुष एक क्राइम फिक्शन उपन्यास श्रृंखला है जो भारत के अंधेरे और क्रूर भरे समय की खोज करती है। विशद या ढीली शैली में लिखा गया यह उपन्यास नशा करने वालों, गैंगस्टरों, अपराधियों और कानून प्रवर्तन अधिकारियों के जीवन की उनके दृष्टिकोण से एक झलक प्रदान करता है। कहानी दो अलग-अलग समय-सारिणी- वर्तमान समय और 1850 के विद्रोह से सुनाई गई है। 

ठगमानुष की दुनिया आपको भारत के अंधेरे अपराध से भरी एक यात्रा पर ले जाएगी। संगठित अपराध, भ्रष्टाचार, नशीली दवाएं बेचने वाला समूह। आतंकवाद। ये उन कई बुराइयों में से कुछ हैं जो भूमि को पीड़ित करती हैं, और यह आप पर निर्भर है कि आप इसके बारे में कुछ करें।

एक सफल व्यवसायी। एक शक्तिशाली राजनेता। एक राजा, प्रभावशाली और सम्मानित व्यक्ति। लेकिन वह सिर्फ एक मुखौटा है, अपने असली स्व के बारे में सच्चाई छुपा रहा है। वह एक ठग है, उन गुमनाम गुंडों में से एक है जो अपनी मुट्ठी और हथियारों से अंडरवर्ल्ड के कानून के शासन को लागू करते हैं। एक नीच ठग से उसके उत्थान को देखने के लिए इस रोमांचकारी यात्रा में हमारे साथ जुड़ें और भारत में सबसे खूंखार और शक्तिशाली अपराधी बचें!

ठगमानुष एक हिंदी क्राइम फिक्शन उपन्यास श्रृंखला है। इसकी ३ किताबें हैं और ये सभी अमेज़न और अन्य रिटेल प्लेटफॉर्म पर बेस्टसेलर बनने वाली है। हिंदी के इतिहास में इस इस तरह का यह पहला उपन्यास कहा जा सकता है। 


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बुधवार, 8 सितंबर 2021

ढाई शंका


एक चर्चित इस्लामिक स्टाल पर कुछेक लोगों की भीड़ देखकर मैं भी पहुँच गया। पता चला 'कुरान-ए-शरीफ़' की प्रति लोगों को मुफ़्त बाँटी जा रही है। शांति, प्रेम और आपसी मेलजोल को इस्लाम का संदेश बताया जा रहा था।

खैर जिज्ञासावश मैंने भी मुफ़्त में कुरान पाने को उनका दिया आवेदन फॉर्म भरने की ठानी जिसमें वो नाम-पता और मोबाइल नम्बर लिखवा रहे थे ताकि बाद में लोगों से सम्पर्क साधा जा सके।

एकाएक एक सज्जन अपनी धर्मपत्नी जी के साथ स्टाल में पधारे सामान्य अभिवादन से पश्चात उन्होंने मुस्लिम विद्वान् के सामने अपना विचार रखा - मैं अपनी धर्मपत्नी के साथ इस्लाम स्वीकार करना चाहता हूँ।

यह सुन मुस्लिम विद्वान के चेहरे पर प्रसन्नत्ता की अनूठी आभा दिखाई दी।
मुस्लिम धर्मगुरु ने अपने दोनों हाथ खोलकर कहा - आपका स्वागत है।
लेकिन उन सज्जन ने कहा - इस्लाम स्वीकार करने से पहले मेरी 'ढाई' शंका है। आपको उनका निवारण करना होगा। यदि आप उनका निवारण कर पाए तो ही मैं इस्लाम स्वीकार कर सकता हूँ!!

मुस्लिम विद्वान ने शंकित से भाव से उनकी ओर देखते हुए प्रश्न किया - महोदय, शंका या तो 'दो' हों या 'तीन'! ये 'ढाई' शंका का क्या तुक है?
सज्जन ने उनको मुस्कुराते हुए कहा - जब मैं शंका रखूँगा आप खुद समझ जायेंगे। यदि आप तैयार हो तो मैं अपनी पहली शंका आपके सामने रखूँ ?
मुस्लिम विद्वान् ने कहा - जी, रखिये...

सज्जन - मेरी पहली शंका है कि सभी इस्लामिक बिरादरी के मुल्कों में जहाँ मुस्लिमों की संख्या 50 फीसदी से ज़्यादा है, मसलन 'मुस्लिम समुदाय' बहुसंख्यक हैं, उनमें एक भी देश में 'समाजवाद' नहीं है, 'लोकतंत्र नहीं है। वहाँ अन्य धर्मों में आस्था रखनेवाले लोग सुरक्षित नहीं हैं। जिस देश में 'मुस्लिम' बहुसंख्यक होते हैं वहाँ कट्टर इस्लामिक शासन की माँग होने लगती है। मतलब उदारवाद नहीं रहता, लोकतंत्र नहीं रहता। लोगों से उनकी अभिवयक्ति की स्वतंत्रता छीन ली जाती है। आप इसका कारण स्पष्ट करें, ऐसा क्यों? मैं इस्लाम स्वीकार कर लूँगा!!

मुस्लिम विद्वान के चेहरे पर एक शंका ने हजारों शंकाए खड़ी कर दीं। फिर भी उन्होंने अपनी शंकाओं को छिपाते हुए कहा - दूसरी शंका प्रकट करें...

सज्जन – मेरी दूसरी शंका है, पूरे विश्व में यदि वैश्विक आतंक पर नज़र डालें तो इस्लामिक आतंक की भागीदारी 95% के लगभग है। अधिकतर मारनेवाले आतंकी 'मुस्लिम' ही क्यों होते है? अब ऐसे में यदि मैंने इस्लाम स्वीकार किया तो आप मुझे कौन-सा मुसलमान बनायेंगे? हर रोज़ जो या तो कभी मस्ज़िद के धमाके में मर जाता, तो कभी ज़रा-सी चूक होने पर इस्लामिक कानून के तहत दंड भोगनेवाला या फिर वो मुसलमान जो हर रोज़ बम-धमाके कर मानवता की हत्या कर देता है! इस्लाम के नाम पर मासूमों का खून बहानेवाला या सीरिया की तरह औरतों को अगवाकर बाज़ार में बेचनेवाला! मतलब में मरनेवाला मुसलमान बनूँगा या मारनेवाला ?

यह सुनकर दूसरी शंका ने मानो उन विद्वान पर हज़ारों मन बोझ डाल दिया हो। दबी-सी आवाज़ में उन्होंने कहा - बाकी बची आधी शंका भी बोलो ?..
.
सज्जन ने मंद-सी मुस्कान के साथ कहा - वो आधी शंका मेरी धर्मपत्नी जी की है... इनकी शंका 'आधी' इसलिए है कि इस्लाम नारी समाज को पूर्ण दर्जा नहीं देता। हमेशा उसे पुरुष की तुलना में आधी ही समझता है तो इसकी शंका को भी 'आधा' ही आँका जाये!

मुस्लिम विद्वान ने कुछ लज्जित से स्वर में कहा - जी मोहतरमा, फरमाइए!...

सज्जन की धर्मपत्नी जी ने बड़े सहज भाव से कहा - ये इस्लाम कबूल कर लें, मुझे इससे कोई आपत्ति नहीं किन्तु मेरी इनके साथ शादी हुए करीब 35 वर्ष हो गये। यदि कल इस्लामिक रवायतों-उसूलों के अनुसार किसी बात पर इन्हें गुस्सा आ गया और मुझे
  *'तलाक-तलाक-तलाक'* 
कह दिया तो बताइए मैं इस अवस्था में कहाँ जाऊँगी? यदि तलाक भी न दिया और कल इन्हें कोई पसंद आ गयी और ये उससे निकाह करके घर ले आये तो बताइए उस अवस्था में मेरा, मेरे बच्चों का, मेरे गृहस्थ जीवन का क्या होगा? तो ये मेरी 'आधी' शंका है।

इस प्रश्न के वार से मुस्लिम विद्वान को निरुत्तर कर दिया। उसने इन जवाबों से बचने के लिए कहा - आप अपना परिचय दे सकते हैं...
सज्जन ने कहा - मेरी शंका ही मेरा परिचय है। यदि आपके पास इन प्रश्नों का उत्तर होगा, हमारी 'ढाई शंका' का निवारण आपके पास होगा तो आप मुझे बताना।

सज्जन तो वहाँ से चले गये पर मौलाना साहब सिर पकड़कर बैठे रहे। किन्तु इन शंकाओ का
उत्तर ये मुल्ला आज तक नहीं 
दे सके। 
 ~ अज्ञात

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शुक्रवार, 2 अप्रैल 2021

thugmanush / ठगमानुष: क्या आप जानते हैं की ठग .....








        लगभग 300 सालों (1500- 1800) तक भारत के यात्रियों में एक खौफ था, क्यूंकि लोग अचानक से गायब हो जाते थे। चूँकि यात्राएं पैदल या किसी घोड़े - गधे पर की जाती थी और दूरसंचार का कोई अन्य माध्यम ने था इसलिए कोई नहीं जानता था की उनके साथ क्या हुआ होगा। वे देवीय रूप से अचानक गायब हो जाते, और फिर कोई खोज खबर नहीं मिलती थी। लोग इसे दैवीय प्रकोप समझते थे, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं था। यह किसी दैवीय प्रकोप से कहीं अधिक भयानक और डरावना था।

    ऐसी घटनाओं से बचने के लिए लोग अकेले यात्रा करना सुरक्षित नहीं समझते थे इसलिए वे यात्रियों का समूह बनाते और फिर समूह में यात्रा करते थे।

बस ! यहीं से शुरू हो जाता था यात्रियों की मौत का सफर।





    ये घटनाएं सिर्फ मौत तक सीमित नहीं थी, ये अंग्रेजों के अहंकार पर भी एक चोट थी की उनके होते हुए उनसे अधिक शातिर और क्रूर और कौन हो सकता है ? यही कारण रहा की अंग्रेजों ने एक अलग विभाग बनाया (जिसे आज इंटेलिजेंस ब्यूरो के नाम से भी जाना जाता है।) और पता लगाया की यह सब अंजाम देने वाले हैं कौन। और तब एक बहुप्रचलित शब्द सामने आया “ठग “

    ठग, मौत की देवी माँ भवानी की पूजा करते थे। ठग “जगीरा” के अनुसार, “यह माँ भवानी का आशीर्वाद है, वह खुद हमें शिकार भेजती है। हमें, शिकार के खून का एक भी कतरा व्यर्थ किये बिना, माँ भवानी को समर्पित करना है। ठगों की हर नई पीढ़ी ऐसा करने के लिए प्रतिबद्ध है।”



  
      ठग “जगीरा” अपने साथियों के साथ यात्रियों से मिलता, उनका विश्वास जीतता और उनके साथ शामिल हो जाता। फिर रास्ते में अन्य ठग भी यात्रियों के रूप में उस दल में शामिल होते जाते। वे मजाक मस्ती करते हुए यात्रा करते, नाच गाना करते, किस्से कहानियां सुनाते और फिर मौका मिलते ही अपने काम को सलीके से अंजाम देते।
    
    उनके पास कभी किसी तरह का कोई हथियार नहीं होता था, वे सिर्फ एक रुमाल और सिक्के की मदद से गला घोंट कर हत्या करते थे। वे ऐसा इसलिए नहीं करते थे की यह आसान था बल्कि यह उनकी मान्यता थी की खून का एक भी कतरा व्यर्थ नहीं होना चाहिए । उनके अपने रीती रिवाज और कानून थे।
        
प्रसिद्ध उपन्यास “ठगमानुष” के अनुसार ठगों के कई गिरोह सक्रिय थे। ठगों के पास एक पुस्तैनी मानचित्र होता था जिसके लिए ठगों के समूहों में अक्सर लड़ाइयां होती थी, माना जाता था की जिस गिरोह के पास यह मानचित्र होगा वह ठगों का “सरदार” होगा।


“ठगमानुष” के अनुसार, ठगों का सरदार “जगीरा” उस पुस्तैनी मानचित्र में हर सम्भव रास्तों और अपशकुन देख सकता था। वह मानचित्र को देवी का आशीर्वाद समझता था।





ठगों का उदय कब हुआ, इसका कोई प्रमाणिक तथ्य मौजूद नहीं है परन्तु अठारवीं सदी में ठगों के पुनरोदय पर लेखक सुभाष वर्मा द्वारा लिखित यह उपन्यास इतिहास की एक खौफनाक सच्चाई को बयाँ करती एक खूंखार कल्पना है जिसमे ठगों के गिरोह की लूटपाट की यात्रा का वर्णन है।

ठगमानुष” के अनुसार “जगीरा” और उसके साथियों ने अंग्रेजो को भी नहीं छोड़ा। ठगों ने भेष बदलकर क्रांतिकारियों के साथ मिलकर न जाने कितने ही साहूकारों और अंग्रेजों के चाटुकारों को लूटा और मार डाला। वे राजाओं और नवाबों से समझौता करके उनके राज्य को लूटते और एक निश्चित रकम राजकोष में जमा करते। ठगों के गिरोह में दगा करने वाले को मौत की सजा दी जाती थी, ऐसे ही छल कपट के कारण जगीरा पकड़ा भी गया।

इस उपन्यास को पढ़ना किसी वारदात को अंजाम होते देखने से कम नहीं, इतनी क्रूरता और खौफनाक मंजर को शब्दों में इस तरह पिरोया गया है की पढ़ने वाला शिहर उठे।

#thugmanush 
Book>>   Thugmanush

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बुधवार, 3 मार्च 2021

भला क्या कर लोगे?

 है हर ओर भ्रष्टाचारभला क्या कर लोगे 

तुम कुछ ईमानदारभला क्या कर लोगे ?

 

दूध में मिला है पानी या पानी में मिला दूध

करके खूब सोच-विचार, भला क्या कर लोगे ?

  

ईमान की बात करना नासमझी मानते लोग 

सब बन बैठे समझदारभला क्या कर लोगे ?  

 

विकास की नैया फंसी पड़ी स्वार्थ के भंवर में  

नामुमकिन है बेड़ा पार,भला क्या कर लोगे ?

 

इंसाफ के नाम पर बस तारीख पर तारीख 

है लंबा बहुत इंतजारभला क्या कर लोगे ?

 

फोड़ लोगे  सर अपना मार-मार कर दीवारों पर 

चलोछोड़ोबैठो यारभला क्या कर लोगे ?  


डॉ. शैलेश शुक्ला, दोणिमलै टाउनशिप , बेल्लारी, कर्नाटक 

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औरत का तमाशा

 

hindi story , sahity sarthi

     कहते है वक्त बदलते देर नहीं लगती और वक्त सभी घावों का मरहम होता है। समय जैसे - जैसे बीतता है घाव भी अपने आप भरने लगते है पर कुछ  घाव ठीक तो हो जाते है लेकिन नासूर बनकर हमेशा दिल को कचोटते रहते है। 

      

कुछ ऐसा ही हाल था साधना का। आज साधना गांव की प्रधान बन चुकी थी और खुश थी की उसके बुरे दिन अब अच्छे होने वाले है और शायद उससे भी ज्यादा खुश गांव वाले थे, इसलिए नहीं की साधना प्रधान बन गयी बल्कि इसलिए की अब शायद साधना को उन तमाम दुखों से मुक्ति मिल जाएगी जो उसने सपनों में भी नहीं सोचा था। साधना का नाम अब शायद सार्थक हो जाये क्योंकि उसका अब तक का शादीशुदा जीवन एक तरह की साधना ही था जो कि सारे गांव वाले जानते थे। 


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सोमवार, 15 फ़रवरी 2021

बधावा


 


 खुशी का कोई रंग नहीं होता पर जब ख़ुशियाँ मिलती हैं, तो हमारा मन भी रंग-बिरंगा हो जाता है, दिल घूमने लगता है मन को आनंद मिलता है। ऐसा ही आनन्द तब मिलता है जब एक स्त्री माँ बनती है, तब उस समय वो अपने सारे दुःख भूलकर एक सम्पूर्णता का अनुभव करती है। 

ऐसा ही एहसास आज सविता कर रही है। उसने एक प्यारे से बेटे को जन्म दिया है और खुश भी है, स्त्री जीवन की सबसे महत्वपूर्ण लालसा आज साक्षात् आकार ले चुकी थी।

 अब तो सविता के मायके से बधावा आएगा, ढेर सारे मेहमान आएंगे, गाना  बजाना होगा, पकवान बनेगें और  ढेर सारे काम होंगे, ये सब बातें सोचकर सविता मन ही मन मुस्कराने लगी। सविता का मायके उसके घर से पचास किलोमीटर दूर है और आने में तीन घंटे लग जाते है पर फ़ोन पर सभी बातें हो जाती है। 


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बची हुई मानवता


                                       

  

राकेश और मैं हमेशा की तरह बातें करते हुए अस्पताल के बाहर आये और अपने विभाग की तरफ जाने लगे, पर सामने देखा तो कुछ भीड़ इकट्ठा थी। हमें लगा कोई मरीज होगा दिखाने आया होगा पर राकेश ने टोकते हुए कहा नहीं यार चल कर देखते है क्या हुआ है? वहां जाकर देखा तो एक बृद्धा जमीन पर बैठी थी और गार्ड बार-बार उससे कह रहा था आप यहाँ से चली जाओ चलो मै बस में बैठा देता हूँ पर वो बृद्धा बार-बार कह रही थी मै इलाज कराकर तभी जाउंगी। गार्ड बोला कैसे इलाज कराओगी तुम्हारे साथ तो कोई है भी नहीं। 

उस बृद्ध महिला की उम्र करीब साठ-पैसठ साल होगी, साँवला रंग, दुबली पतली  काया थी, कपड़े मैले-कुचैले थे, बाल सफ़ेद हो चुके थे पर धूल मिटटी और गन्दगी की वजह से अलग रंग के नज़र आ रहे थे।  ऐसा लग रहा था बिना कंघी के बाल भी गुस्सा होकर आपस में उलझे हुए है। मुँह में दांत आधे बचे हुए थे,जाने कितने दिन हो गए थे नहाये हुए ,शरीर से दुर्गन्ध आ रही थी ऊपर से घाव की सड़न की वजह से भी महक आ रही थी । उस बृद्धा को देख तो सभी रहे थे पर पूछ नहीं रहे थे कि क्या हुआ है, जब उसके पैरो पर नज़र गयी तो हमने देखा की उसने अपने पैर पर कपड़े और प्लास्टिक की पट्टी बांध रखी है।  धीरे धीरे भीड़ हटने लगी सभी अपने अपने काम में व्यस्त हो गए और वो बृद्धा फिर से अकेली हो गयी। 

हम लोग भी अपने कमरे में आकर बैठ गए पर राकेश कुछ सोच रहा था। वो अचानक उठा और बोला मैं अभी आ रहा हूँ।  राकेश उस बृद्धा के पास गया और उससे पूछा पैर में चोट कैसे लगी ? बृद्धा बोली- चौकी पर से गिर गयी। उसने अपना घर बिहार बताया और कहा की उसका बेटा उसे यहाँ छोड़ गया और कहकर गया की यही पर रहकर इलाज करा लो जब ठीक हो जाना तब आ जाना। अपनी व्यथा सुनाते-सुनाते उसके आँखों से गंगा यमुना निकलने लगी, दिल पसीज गया सुनने और और सुनाने वाले दोनों का।  

उसके पैर में घाव हो गया था और इन्फेक्शन शायद हो चुका था। राकेश ने उसका एक्सरे करवाया और पता चला की उसके पैर की हड्डी में मोच है।  डॉक्टर ने दवा लिख दी और राकेश ने उसके घाव की ड्रेसिंग करवा दी। जिस पैर में घाव था उस पैर को हाथ से ऊपर उठाकर तथा दूसरे हाथ के सहारे घिसट-घिसटकर चलती थी वो,अपने पैरो पर खड़ी नहीं हो पाती थी। मक्खियाँ उसके घाव पर बार बार आकर बैठती और वो हाथ के सहारे उन्हें बार-बार हवा में उड़ाती थी। उस बृद्धा के पास दुर्गन्ध की वजह से लोग जाना पसंद नहीं करते थे दूर से ही बात करते थे, राकेश उसको दवायें खरीद कर देता था, रोज उस बृद्धा की सेवा करता था, उससे देर तक बातें करता था, पर उसके पास भी इतने पैसे नहीं थे की वो उसका सही ढंग से इलाज करवा सके। जो इंसान कभी अपने लिए टिफिन नहीं लाता था उस बृद्धा के लिए खाना लेकर आता था। मैं भी कभी-कभी उसे बिस्कुट और समोसे दे आता था।  

मानवता आज  मानवता के काम आ रही थी इससे बड़ी जीत मानवता के लिए क्या हो सकती थी। पर धिक्कार है उस दानव रूपी बेटे का जिसने मानवता को शर्मशार करते हुए अपनी ही माँ को ऐसे अकेले छोड़कर चला गया और वो किस हाल में है ये भी पता नहीं करने आया। बृद्धा एक साल तक अस्पताल के बाहर अपना घर बनाये रखी, खुला आसमान उसका छत था और जमीन उसका सोने का बिस्तर, पास में केवल एक गन्दा सा झोला था जिसमे लोगो द्वारा दिए हुए खाने और एक-दो कपड़े थे। दिन में अस्पताल मरीजों से गुलज़ार रहता था वो मरीजों से बातें करती और अपने मन को हल्का करने के लिए अपना दुःख उनसे साझा करती थी पर पैसे कभी नहीं मांगती थी क्योकि उसे पैसे की जरुरत केवल इलाज के लिए थी आत्मिक संतोष के लिए नहीं। 

जब तक दवा का असर रहता था सबसे बातें करती पर दर्द जब बढ़ने लगता था तो कराहने लगती और न जाने उसने कितनी रातें कराहते हुए गुजारी और दिन में अपने जैसे हज़ारो लोगो को देखकर मन को सांत्वना देती थी।  राकेश कुछ दिन अपने काम की व्यस्तता के चलते उससे मिल नहीं पाया और एक दिन उस बृद्धा से मिला, उसने उसे नजदीक बुलाया और ऐसा लगा की जैसे कोई गुप्त बात बतानी हो। बृद्धा धीरे से बोली मेरे पास ढेर सारे पैसे है तुम ले जाओ कहकर अपने झोले से ढेर सारे सिक्को से भरी थैली निकाल कर देने लगी। राकेश ने मना कर दिया और बोला - तुम रख लो मुझे नहीं चाहिए इस पैसे से अपना इलाज करवाओ।  बृद्धा रोने लगी और बोली मेरे अपने बेटे ने मुझे घर से निकाल दिया और तुमने उससे भी बढ़कर मेरी सेवा की तुम ले जाओ ये पैसा वैसे भी अब इलाज कराने से क्या फायदा बूढ़ी हो गयी हूँ कुछ दिनों में मर जाउंगी । राकेश ने वो पैसा नहीं लिया। कुछ दिन बाद उसको पता चला उस बृद्धा का पैसा किसी ने ले लिया और फिर उसको दिया ही नहीं, एक दिन उसको गार्ड ने बस में बैठाकर बिहार भेज दिया पर चौदह दिन बाद फिर से  वो लौट आयी और करीब सात महीने यहाँ रही।  दोबारा उसके पास पैसे हो गए थे और वो राकेश को देना चाहती थी पर राकेश ने लेने से मना कर दिया। इस बार वो गयी तो वापस नहीं लौटी। राकेश कई दिनों तक परेशान रहा उसके लिए पर उस बृद्धा का क्या हुआ कोई नहीं जानता।

लेखक : भीम सिंह राही 



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गुरुवार, 4 फ़रवरी 2021

प्रधानी का चुनाव


                   
मनुष्य हमेशा से प्रगतिशील रहा है और अपने विकास के लिए ऐसे बहुत से कार्य किये है जिससे उसका भविष्य और उज्वल हो। उसने विज्ञान के माध्यम से बहुत कुछ पाया है,परन्तु कुछ प्रश्न ऐसे भी है जिनका उत्तर देना अभी विज्ञान के लिए असंभव है। जिन प्रश्नो का हमें वैज्ञानिक तरीके से उत्तर नहीं मिल पाता उन्हें हम कहते है ये हो ही नहीं सकता या फिर भगवान के ऊपर छोड़ देते है। आज एक ऐसी ही कहानी आप सबके सामने रख रहा हूँ जिसे विज्ञान कभी स्वीकार नहीं करेगा। 

आज से करीब दस साल पहले हमारे गांव में प्रधानी का चुनाव हुआ था। सभी को इंतज़ार था की परिणाम कब आएगा परन्तु अभी कुछ दिन का समय था। गाँव में कई तरह के समूह बँटे हुए थे जो की अपने-अपने ढंग से संभावित परिणामों की विवेचना करने में जुटे हुए थे। कोई कहता था, अरे साधु जी जीतेंगे, उन्होंने बहुत से सामाजिक कार्य किये है। कोई कहता, “नहीं - नहीं, साधु जी नहीं जीत पाएंगे, क्योंकि सरजू ने बहुत सारा पैसा खर्चा किया है, महिलाओ में साड़िया भी बाँटी है, वही जीतेगा।” कोई कहता, अरे भाई ये क्यों भूल रहे हो कि खरभन ने तो सबको बहुत खिलाया पिलाया है हो सकता है वही जीते। 


जितने मुँह, उतनी बातें। कोई भी एक निश्चित निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पा रहा था पर इन सब से अलग एक और समूह था जो की अलग ढंग से जानना चाहता था कि कौन जीतेगा ? इसके लिए एक तरीका अपनाया। उन्होंने एक तांत्रिक को बुलवाया। 

गर्मियों का मौसम था। सुबह के करीब दस बज रहे होंगे, खटिया बिछाई गयी और उसपर एक दो सम्मानित लोग बैठे, तांत्रिक वहीं ज़मीन पर बैठा जहाँ ढेर सारी धूल उसके लिए किसी चटाई का काम कर रही थी। नीम के पेड़ के पत्ते झड़ चुके थे और जो टहनियां बची थी केवल उनकी ही छाया थी। मन की उत्सुकता और जानने की व्याकुलता बरबस ही आठ दस महिलाओ, बच्चों को वहां पर खींच लायी थी। 

मैं भी थोड़ी दूर से यह सब देख रहा था। एक व्यक्ति ने खटिया से नीचे झुककर धूल को अच्छे से साफ किया और उस साफ जगह पर तीन चार गोले बनाकर सब गोलों से रेखा खींच दी और अपनी तरफ उम्मीदवारों के नाम लिख दिए और उस तांत्रिक से बोले अब बताओ कौन जीतेगा। तांत्रिक जोर- जोर से कुछ बड़बड़ाया और दो मिनट के बाद उसने किसी एक गोले पर अपनी अंगुली रखी और कहा की यह जीतेगा। 

उस व्यक्ति ने उम्मीदवारों के नाम बदल दिए और फिर से बताने को कहा, तांत्रिक फिर से बड़बड़ाया और एक गोले पर हाथ रखा। यही क्रिया चार-पाँच बार दोहराई गयी और फिर पता चला की ये उम्मीदवार जीतेगा। तांत्रिक हर बार सिर्फ एक उम्मीदवार को जिताकर वहां से चला गया। 

अब सबको इंतज़ार था परिणाम का और उस तांत्रिक की बताई बात को परखने का। छह दिनों के बाद परिणाम आया और वही उम्मीदवार जीता जिसको तांत्रिक ने बताया था।

अब आप कहेंगे की ऐसा हो सकता है की तांत्रिक ने नाम पढ़ लिए होंगे पर इसकी कोई गुंजाईश ही नहीं थी क्योंकि वह अनपढ़ था। यहाँ पर यह भी हो सकता है की चार पांच बार एक ही आदमी का नाम आना संयोग भी हो सकता है। 

लेखक: भीम सिंह राही



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शनिवार, 5 दिसंबर 2020

Top 5 HIndi Motivational Books/Novel || शीर्ष 5 हिंदी प्रेरक पुस्तकें / उपन्यास जो आपकी जिंदगी बदल सकती है।

 



#१

पुस्तक – ट्वेल्थ फेल

लेखक – अनुराग पाठक


कहानी का प्रमुख पात्र मनोज शर्मा है जिनका 12th में फेल होने से लेकर आईएएस ऑफिसर बनने तक का सफर कहानी में लिखित है। मनोज शर्मा लोगों के लिए मिसाल है कि किस प्रकार एक लड़का ट्वेल्थ में फेल होकर ग्रामीण परिवेश में रहकर संघर्ष करते हुए आईएएस ऑफिसर बनता है और लोगों को अपनी कहानी से प्रेरणा देता है। कहानी बहुत ही रोचक , मोटिवेशनल और रुचिकर है।


इस मोटिवेशनल किताब में असफलता को हैंडल करने और सफलता की राह पर बढ़ते जाने कुछ नुस्ख़े भी सुझाए हैं। ऐसे 26 युवाओं की सफलता की शानदार कहानियाँ भी उन्हीं की ज़ुबानी इस किताब के अंत में शामिल हैं, जिन्होंने तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद ‘रुक जाना नहीं’ का मंत्र अपनाकर सफलता की राह बनाई और युवाओं के प्रेरणास्त्रोत बने।


#२ डार्क हॉर्स

लेखक: निलोत्पल मृणाल


सिविल सेवा की तैयारी करने वाले विद्यार्थियों का मर्मबेधन करने में सक्षम "डार्क हॉर्स" न केवल परीक्षा की तैयारी की दांस्ता बयां करता है बल्कि जीवन संघर्ष के सही मायने भी उल्लिखित करता है।

सहज एवं स्वाभाविक भाषा का प्रयोग पाठक को बांधने में समर्थ है और कथानक का अंत प्रेरणा के पथ पर अग्रसर करते हुए स्वतन्त्र कर देता है।


#३ रूक जाना नहीं :

लेखक: निशान्त जैन


यह किताब प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले हिंदी मीडियम के युवाओं को केंद्र में रखकर लिखी गई है।


इस किताब में कोशिश की गई है कि हिंदी पट्टी के युवाओं की ज़रूरतों के मुताबिक़ कैरियर और ज़िंदगी दोनों की राह में उनकी सकारात्मक रूप से मदद की जाए। इस किताब के छोटे-छोटे लाइफ़ मंत्र इस किताब को खास बनाते हैं। ये छोटे-छोटे मंत्र जीवन में बड़ा बदलाव लाने की क्षमता रखते हैं।


इस किताब की कुछ और ख़ासियतें भी हैं। इसमें पर्सनैलिटी डेवलपमेंट के प्रैक्टिकल नुस्ख़ों के साथ स्ट्रेस मैनेजमेंट, टाइम मैनेजमेंट पर भी विस्तार से बात की गई है। चिंतन प्रक्रिया में छोटे-छोटे बदलाव लाकर अपने कैरियर और ज़िंदगी को काफ़ी बेहतर बनाया जा सकता है। विद्यार्थियों के लिए रीडिंग और राइटिंग स्किल को सुधारने पर भी इस किताब में बात की गई है। कुल मिलाकर किताब में कोशिश की गई है कि सरल और अपनी-सी लगने वाली भाषा में युवाओं के मन को टटोलकर उनके मन के ऊहापोह और उलझनों को सुलझाया जा सके।


#४ ‘इलाहाबाद ब्लूज’

लेखक: अंजनी कुमार पांडेय


‘इलाहाबाद ब्लूज’ दास्ताँ है साँस लेते उन संस्मरणों की जहाँ इतिहास, संस्कृति और साहित्य की गोद से ज़िंदगी निकल भी रही है और पल-बढ़ भी रही है। इस पुस्तक से गुज़रते हुए पाठकों को यह लगेगा कि वो अपने ही जीवन से कहीं गुज़र रहे हैं। उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ की गँवई ज़मीन से शुरू हुई यह यात्रा इलाहाबाद होते हुए यूपीएससी, धौलपुर हाउस और दिल्ली तक का सफ़र तय करती है। ‘

इलाहाबाद ब्लूज’ एक मध्यमवर्गीय जीवन की उड़ान है। इसलिए इसमे जहाँ गाँव की मिट्टी की सोंधी ख़ुशबू है, वहीं इलाहाबाद की बकैती, छात्र जीवन की मसखरी और फक्कड़पन भी इस पुस्तक की ख़ासियत है। मिडिल क्लास ज़िंदगी के विभिन्न रंगों से सजे हुए संस्मरण बहुत ही रोचक एवं मनोरंजक ढंग से प्रस्तुत किए गए हैं। इसमें एक बोलती-बतियाती, जीती-जागती ज़िंदगी है, संघर्ष है, प्रेम है, पीड़ा है, अथक जिजीविषा है और अंत में कभी भी हार ना मानने का दृढ़-संकल्प है। पहले से आख़ि‍री पृष्ठ तक आप कब स्वयं 'अंजनी' होते हुए इस पुस्तक से निकलेंगे, यह आपको एहसास ही नहीं होगा।.


#५ विटामिन जिंदगी

लेखक: ललित कुमार


आप परेशान हैं?... एक के बाद एक समस्याएँ जीवन में आती ही रहती हैं... तो क्या आपको लगता है कि जीवन की प्रॉबलम्स कभी खत्म नहीं होंगी? क्या आप जीवन में हार मान रहे हैं?...


जिस तरह शरीर को अलग-अलग विटामिन चाहिए -- उसी तरह हमारे मन को भी आशा, विश्वास, साहस और प्रेरणा जैसे विटामिनों की ज़रूरत होती है। लेखक ललित कुमार इन सभी को मनविटामिन कहते हैं। "विटामिन ज़िन्दगी" एक ऐसा कैप्स्यूल है जिसमें ये सभी विटामिन मिलते हैं।


हमारा सामना समस्याओं, संघर्ष, चुनौतियों और निराशा से होता ही रहता है -- इन सबसे जीतने के लिए हमारे पास ‘विटामिन ज़िन्दगी’ का होना बेहद आवश्यक है।


विटामिन ज़िन्दगी एक किताब नहीं बल्कि एक जीवन है -- एक ऐलान है कि इंसान परिस्थितियों से जीत सकता है। एक बच्चा जिसे चार साल की ही उम्र में ही पोलियो जैसी बीमारी हो गई हो -- उसने कैसे सभी कठिनाइयों से जूझते हुए समाज में अपना एक अहम मुकाम बनाया -- यह किताब उसी की कहानी कहती है। ज़िन्दगी में आने वाली तमाम चुनौतियों को लेखक ने किस तरह से अवसरों में बदला -- यह उसी सकारात्मकता की कहानी है।


ललित का सफ़र "असामान्य से असाधारण" तक का सफ़र है। पोलियो जैसी बीमारी ने उन्हें सामान्य से असामान्य बना दिया, लेकिन अपनी मेहनत और जज़्बे के बल पर उन्होंने स्वयं को साधारण भीड़ से इतना अलग बना लिया कि वे असाधारण हो गए। इसी सफ़र की कहानी समेटे यह किताब ज़िन्दगी के विटामिन से भरपूर है।


इस किताब में सभी के लिए कुछ-न-कुछ है जो हमें हर तरह की परिस्थितियों का सामना करना सिखाता है।


इन पुस्तकों के अलावा भी यहां बहुत सी बेहतरीन पुस्तकें है जो आपकी जिंदगी बदल सकती है। आपकी जिंदगी में बदलाव लाने वाली किताब कौन सी है, हमें बताएं, हम अवश्य सूची में शामिल करेंगे।





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गुरुवार, 29 अक्टूबर 2020

बावळी बूच


बावळी बूच क़िताब कल मुझे प्राप्त हुई थी और आज पूरी पढ़ ली हैं। कारण सिर्फ लेखन शैली। यह इस तरह की एकमात्र किताब है जो इस विषय पर इतने बेहतर तरीके से लिखी गई है। लेखक के बारे में जानने कि इच्छा हुई तो पता चला कि साहब पेशे से पत्रकार है तो ऐसा बेहतरीन लेखन अपेक्षित था।

लेखक सुनील जी ने मीडिया के अनछुए पहलुओं पर ठीक ऐसे ही ध्यान आकर्षित किया है जैसे मुखर्जी नगर के कोचिंग सेंटरों के लिए ‘डार्क हॉर्स में नीलोत्पल ने किया.

व्यंग्यो में हरीशंकर परसाई जी का प्रभाव काफ़ी दिखायी दिया.

इस किताब ने कई किताबों की याद दिलायी जैसे शुरू में डार्क हॉर्स की, बीच में लगा की अन्तक का हाल औघड के बिरंचिया जैसा हो जाएगा, आख़िर में लगा कि अन्तक कहीं कार्पोरेट की बिपाशा बसु जैसा ना बना दिया जाए. पर नहीं ये मेरे दिमाग की कोरी कल्पना ही साबित हुई.

लेखक ने जिस तरह से अपनी लेखनी का जादू बिखेरा कि अन्त तक पाठक को सस्पेंस बना रहता है और कई बार ऐसा लगता है की ये अपनी ही कहानी हैं.

लेखन कला देखकर लगता हैं कि सुनील जी लम्बी रेस के घोड़े साबित होंगे।

ये किताब आपको कहीं भी निराश नहीं करेगी

कुछ वाक्य पुस्तक से जिनके प्रसंग मन को मोह लेंगे.

१.घास के गोदाम में सुई जैसा काम है मीडिया में क़ाबिल पत्रकार इंसान खोजना.

२.दरसल हम पत्रकार नहीं, कलाकार हैं.

३.बाक़ी बिज़नेस का पता नहीं परंतु मीडिया में कोई किसी का सगा नही.

४. पत्रकारिता नाम की चिड़िया मात्र अफ़वाह है.

५.देश में भ्रष्टाचार बेरोज़गारी के सवाल दहाड़ दहाड़कर खड़े करने वाले न्यूज़ चैनलों का खुद का सिस्टम अमरीश पुरी के मोगेम्बो साम्राज्य से कम नही.

६. इतनी मेहनत अपने खेत में किए होते तो सोना उगा लेते .

७.कोशिश ही कामयाब होती है, वादे अक्सर टूट जाया करते हैं.

किताब नयापन और अद्भुत लेखन शैली लिए हुए है. पाठकों के लिए बावळी बूच एक अवसर की तरह है, देर किए बगैर पढ़ डालिए।

https://www.amazon.in/dp/9387464938


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बुधवार, 14 अक्टूबर 2020

भंवरजाल का मल्लाह !!!


पुस्तक समीक्षा



पुस्तक: भंवरजाल का मल्लाह

लेखक: बिन्नी आरजे 


बिन्नी आरजे द्वारा लिखी गई रहस्य सागर सीरीज की यह पहली नॉवेल है।


अगर आपको हैरी पॉटर जैसी यानी हैरतअंगेज और रहस्यमयी कहानियां पसंद है तो यह पुस्तक आपके लिए है।

    विज्ञान और अध्यात्म का बखूबी मिश्रण लिए यह कहानी है महारानी अरिहा नीलकमल एक मां के प्यार की, आमेट त्रिक्ष और सरांग के निश्छल प्रेम की...यह कहानी रहस्यो से भरी भूत और वर्तमान घटनाओं का सुंदर समावेश लिए हुए आपको हर मोड़ पर रोमांचित करती है। इसकी एक झलक देखिए...

    "बार बार अपनी मन की शक्तियों से खुद को स्वस्थ कर चुके पुण्या की ऊर्जा कुछ कम हो गयी थी, वो जमीन पर थका पड़ा हुआ सत्या से हाँफते हुए कहता है। ... 

    इस बार सुरक्षा कवच का निर्माण कहीं अधिक मजबूत करियेगा। अभी हमें उत्तर से दक्षिण की और टेलीपोट होते कईं लोगो ने देख लिया। हमारी वास्तविकता वर्तमान में उजागर हो यह ठीक नहीं। "

    इस पुस्तक की सबसे बड़ी खासियत है इसकी रिसर्च और हर अध्याय से जुड़े कलर पेजेस जो हर अध्याय को और भी ज्यादा रोमांचक बनाता है।

    लेखिका ने कथानक और चरित्र चित्रण बहुत अच्छे से किया है। हर पात्र कुछ कहता है, चाहे वो पुण्या हो, सत्या हो या फिर लाल नीली आंखों वाला आतरये पहेली। कई बार पढ़ते समय खुद को वहां महसूस करने लग जाना, लेखिका की कामयाबी बयान करता है। इसके लिए वो बधाई की पात्र है।

उनकी भाषा शैली में भी तत्सम शब्दों के साथ आधुनिक शब्दों का भी गजब मिश्रण देखने को मिलता है। जैसे

"शायद ठंड की पराकाष्ठा थी या फिर अंतहीन दर्द की--- पर आज ये आँखों से लुढ़क ही गया-- और बंजर रेगिस्तान सा कर गया सदा के लिए अरिहा के भूरे नयनों को--- पर उसके आँसू के उस आखिरी कतरे में सब्र की शीतलता थी, जिस से कहीं मिलों दूर धधकती ज्वालामुखी के लावे को पल भर के लिए ठंडक नसीब हो गया।"

"एक शापित राजकुमारी के जीवन में सच्चा प्यार लिए दस्तक देता है,एक राजकुमार। दोनो अपने गमो को दरिया में बहा अपनी खुशियों में खो जाते है,लेकिन उनकी गम की पोटली से एक दिन एक जादूगर पहेली वापस लौट आता है,उनकी जिंदगियों की हर खुशी को निगलने के लिए..."

बिन्नी जी ने इस विषय पर काफी मेहनत की है। और पाठकों को  हर पन्ने पर चौकाने की पूरी कोशिश की है। यह एक सकारात्मक सोच की किताब है। और खासियत यह है कि यह हर आयु वर्ग के लिए है।

इसे हर किसी को एक बार जरूर पढ़ना चाहिए।



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