बावळी बूच क़िताब कल मुझे प्राप्त हुई थी और आज पूरी पढ़ ली हैं। कारण सिर्फ लेखन शैली। यह इस तरह की एकमात्र किताब है जो इस विषय पर इतने बेहतर तरीके से लिखी गई है। लेखक के बारे में जानने कि इच्छा हुई तो पता चला कि साहब पेशे से पत्रकार है तो ऐसा बेहतरीन लेखन अपेक्षित था।
लेखक सुनील जी ने मीडिया के अनछुए पहलुओं पर ठीक ऐसे ही ध्यान आकर्षित किया है जैसे मुखर्जी नगर के कोचिंग सेंटरों के लिए ‘डार्क हॉर्स में नीलोत्पल ने किया.
व्यंग्यो में हरीशंकर परसाई जी का प्रभाव काफ़ी दिखायी दिया.
इस किताब ने कई किताबों की याद दिलायी जैसे शुरू में डार्क हॉर्स की, बीच में लगा की अन्तक का हाल औघड के बिरंचिया जैसा हो जाएगा, आख़िर में लगा कि अन्तक कहीं कार्पोरेट की बिपाशा बसु जैसा ना बना दिया जाए. पर नहीं ये मेरे दिमाग की कोरी कल्पना ही साबित हुई.
लेखक ने जिस तरह से अपनी लेखनी का जादू बिखेरा कि अन्त तक पाठक को सस्पेंस बना रहता है और कई बार ऐसा लगता है की ये अपनी ही कहानी हैं.
लेखन कला देखकर लगता हैं कि सुनील जी लम्बी रेस के घोड़े साबित होंगे।
ये किताब आपको कहीं भी निराश नहीं करेगी
कुछ वाक्य पुस्तक से जिनके प्रसंग मन को मोह लेंगे.
१.घास के गोदाम में सुई जैसा काम है मीडिया में क़ाबिल पत्रकार इंसान खोजना.
२.दरसल हम पत्रकार नहीं, कलाकार हैं.
३.बाक़ी बिज़नेस का पता नहीं परंतु मीडिया में कोई किसी का सगा नही.
४. पत्रकारिता नाम की चिड़िया मात्र अफ़वाह है.
५.देश में भ्रष्टाचार बेरोज़गारी के सवाल दहाड़ दहाड़कर खड़े करने वाले न्यूज़ चैनलों का खुद का सिस्टम अमरीश पुरी के मोगेम्बो साम्राज्य से कम नही.
६. इतनी मेहनत अपने खेत में किए होते तो सोना उगा लेते .
७.कोशिश ही कामयाब होती है, वादे अक्सर टूट जाया करते हैं.
किताब नयापन और अद्भुत लेखन शैली लिए हुए है. पाठकों के लिए बावळी बूच एक अवसर की तरह है, देर किए बगैर पढ़ डालिए।
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