कहते है वक्त बदलते देर नहीं लगती और वक्त सभी घावों का मरहम होता है। समय जैसे - जैसे बीतता है घाव भी अपने आप भरने लगते है पर कुछ घाव ठीक तो हो जाते है लेकिन नासूर बनकर हमेशा दिल को कचोटते रहते है।
कुछ ऐसा ही हाल था साधना का। आज साधना गांव की प्रधान बन चुकी थी और खुश थी की उसके बुरे दिन अब अच्छे होने वाले है और शायद उससे भी ज्यादा खुश गांव वाले थे, इसलिए नहीं की साधना प्रधान बन गयी बल्कि इसलिए की अब शायद साधना को उन तमाम दुखों से मुक्ति मिल जाएगी जो उसने सपनों में भी नहीं सोचा था। साधना का नाम अब शायद सार्थक हो जाये क्योंकि उसका अब तक का शादीशुदा जीवन एक तरह की साधना ही था जो कि सारे गांव वाले जानते थे।
साधना के पिताजी सरकारी अफ़सर थे और साधना इंटरमीडिएट तक पढ़ी थी उसकी शादी रज्जोपुर गांव के सम्मानित व्यक्ति राजेश्वर चौधरी के सबसे बड़े पुत्र बहादुर से हुई। साधना नए घर में आकर थोड़ी सी उदास थी आखिर मायका छोड़कर अनजान लोगो से परिचित होने में समय तो लगता ही है।
समय बीतता रहा और साधना के ऊपर अत्याचार की बारिशें होती रही। इन अत्याचारों की सबसे बड़ी वजह थी उसकी तीन बेटियाँ। साधना की सास उसे हमेशा ताने मारती रहती थी और कहती थी -बस तू लड़कियाँ ही पैदा करना, पोता मत देना मुझे करमजली, पता नहीं कौन सी घडी में ब्याह कर दिया अपने बेटे का जो उसके भाग फूट गए।
क्या विचित्र विडम्बना थी यहाँ पर ? एक नारी दूसरी नारी को प्रताड़ित कर रही है केवल इसलिए की उसने अपनी ही प्रति मूर्ति को जन्म दिया। साधना चुपचाप सुनकर रह जाती। दिल अंदर से रोता और आँखों से चुपचाप ऑंसू निकल जाते थे। साधना पढ़ी लिखी शिक्षित महिला थी और चाहती तो इसका जवाब भी दे सकती थी पर नारी बलिदान की वह प्रति मूर्ति होती है जो हमेशा अपने बारे में न सोचकर अपनों के बारे में सोचती है। साधना के आगे भी यही दीवार थी। पति उसे बेहद चाहता था पर बेरोज़गारी, तीन बच्चियों के पालन पोषण की सारी ज़िम्मेदारी और कुछ माँ बाप के प्रति आदर सम्मान की भावना पत्नी के प्रति हो रहे अत्याचार के खिलाफ बोलने के लिए ज़ुबान पर मजबूत ताले लगाकर चाबियों के गुच्छे को तालाब में फेक देती थी।
दिन बहुत मुश्किल से कट रहे थे कि पता चला साधना फिर से माँ बनने वाली है ,उम्मीदों की एक किरण फिर से खुशिओं के दरवाज़े खटखटाने लगी और सब उम्मीदों के सपने अपने अपने तरीकों से सजाने लगे। बहादुर भगवान से प्रार्थना करने लगा -भगवान इस बार बस एक बेटा दे दो जिससे मेरा संसार भर जाये और मेरी साधना को उन तमाम मुश्किलों से छुटकारा मिल जाये जिसके लिए वो सालो से इंतज़ार कर रही है ,उसे एक अच्छी बहु होने का दर्जा मिल जाये भगवान। साधना की बेटिया सोच रही है इस बार हमारे लिए भाई आएगा और हम उसे राखी बांधेंगे उसके साथ खेलेंगे और दादी हमें अपने पास से नहीं भगाएगी। साधना की सास रन्नो देवी तीखे शब्दों में लड़कियों से कहती है - “कह दे अपनी माँ से कि इस बार अगर लड़का नहीं दिया तो तुम सबको लेकर मायके चली जाये और वही रहे मेरे कलेजे पर मूंग दलने न आये।”
लोग जहर पीकर मर जाते है पर साधना तो रोज तिरस्कार, घुटन,से भरा जहर पीती थी। साधना पति के प्यार, ममता की भावनाओ की ऐसी डोरी से बंधी हुई थी कि चाहकर भी कुछ नहीं कर सकती थी।
कई बार भगवान भी परीक्षा लेता है उनकी जिनका उसके ऊपर विश्वास रहता है और ये परीक्षा तब तक पूरी नहीं होती जब तक की उनका भगवान पर से भरोसा न उठ जाये और यही हाल साधना का हुआ, मन में डर की भीषण आंधियाँ चलने लगी, कंपकंपी का तूफान जोरो पर था और कमरे में केवल साधना और अभी-अभी जन्मा बच्चा था । साधना ने दाई से कपकपाते शब्दों में पूछा- “दाई क्या हुआ है?”
दाई कुछ न बोली और बाहर चली गयी। साधना धीरे से उठकर बच्चे के पास गयी, जिसे पुराने कपड़ो में लपेटकर रखा गया था, कपड़े को धीरे से हटाया और फिर दूर हट गयी। आज एक माँ को अपने बच्चे से वो लगाव न था उसकी विकलता और विवशता साफ दिख रही थी।
दीवार के झरोखे से देखा, उसकी सास, पति और गांव की तीन चार औरतें आंगन में बैठी थी। रन्नो मुँह फुलाये, अधीर होकर बैठी थी। बोली, "फिर से साधना ने एक बेटी की पैदा करके बहुत बड़ा पाप कर दिया। पूरे गांव में हल्ला हो गया की बहादुर की औरत को लड़की पैदा हुई है।
इसके बाद साधना अत्याचार का साधन बन गयी थी, बार बार रन्नो उसे मारती पीटती थी और बहादुर पहले की तरह चुप ही रहता, पर उसके लिए उसके भाई ने कोई काम ढ़ूँढ़ लिया था और वो मुंबई चला गया। बहादुर के ऊपर भी चार बच्चियों का बोझ हो गया था, कमाता नहीं तो उनको खिलाता कैसे? इधर साधना घर के सारे काम करती तब भी भरपेट खाना नहीं मिलता था, रन्नो कहती तेरी चार बेटियों का पेट भरूं या तेरा ? ले इतने में तू खा या अपनी बेटियों को खिला, खाना मिलते ही बेटियाँ खाने पर टूट पड़ती थी । साधना, जो बचता वही खाकर सो जाती थी।
एक दिन रन्नो कहीं से बाज़रे की लिट्टि लायी और रखकर कहीं चली गयी और वो लिट्टी साधना की बेटियों ने देख लिया, पेट जब खाली रहता है तो कोई भी चीज अमृत लगती है, साधना मना करती रही पर सब नहीं मानी और वो लिट्टी खा गयीं, पेट की आग के आगे बड़े से बड़ा धुरंधर भी चित हो जाता है। उस लिट्टी का थोड़ा सा हिस्सा साधना ने भी खाया लेकिन जब परिणाम सोचा तो दिल दहलने लगा और वही हुआ।
रन्नो ने साधना के बाल खींचते हुए घर के बाहर ले आयी और मारने लगी, बोली, "मेरी सारी लिट्टी खा गयी। डायन, जा यहाँ से। भाग जा मायके।" पास-पड़ोस के लोग इकट्ठा हो गए। सबको रन्नो की निर्दयता का और साधना की शालीनता और सहनशीलता का पता था।
वह अपराधी की तरह चुपचाप मार खाती रही। रन्नो बोली, "आज से तुझे खाना ही नहीं दूंगी, तब तेरी अकड़ जाएगी।" साधना को ऐसे मार खाते देख उसकी बेटियां भी रोने लगी, पड़ोसी मूक दर्शक बनकर खड़े रहे और कुछ ही देर में तमाशा ख़त्म हो गया।
तीन दिन तक रन्नो ने साधना को खाना नहीं दिया, भूख के मारे वो बेचारी तड़फड़ाती रही पर कर भी क्या सकती थी, रसोई में ताला लगा हुआ था। वह तीन दिन से सिर्फ पानी पीकर जी रही थी और खाली पेट पानी भी नहीं पिया जा रहा था। साधना ने सोचा किसी पड़ोसी के घर से माँगकर खा लेती हूँ। दो तीन घरो में घूमने के बाद उसे चौथी जगह से कुछ उम्मीद जगी, कोई भी रन्नो के डर के मारे खाना नहीं देना चाहता था। अगर रन्नो को पता चल गया तो वो तूफान मचा देगी। रमणी अम्मा ने कहा - “देख बेटी मैं खाना तो तुझे दे दूंगी लेकिन अभी नहीं, अभी साँझ होने में दो घंटे बाकी है और दिन में किसी ने देख लिया और तेरी सास से कह दिया तो वो मुझे जीने नहीं देगी, तू अंधेरा होने पर आना तब मैं तुझे खाना दूंगी।” साधना के लिए ये दो घंटे बिताना दो साल के बराबर लग रहा था। सिर चकरा रहा था चलने की हिम्मत तक नहीं थी, वो सोचने लगी माँ बाप की एकलौती बेटी हूँ मैं कितने लाड़-प्यार से पाला था मुझे, किसी चीज की कमी नहीं थी पर आज मेरी कैसी हालत हो गयी है की मुझे दूसरे से मांगकर खाना पड़ रहा है।
अंधेरा हो चूका था साधना अपने कार्य को पूरा करने के लिए आगे बढ़ी और रमणी अम्मा के दरवाजे पर जा पहुंची। रमणी अम्मा ने इधर- उधर देखा और झट से उसके आचल में एक आधी लिट्टी का टुकड़ा डाल दिया और बोली जा खेत में शौच के बहाने बैठकर खा लेना। कितनी विकट परिस्थिति थी उसके लिए, लोग पेट भरने के बाद शौच जाते है और मैं शौच जाने के बहाने पेट भरने जा रही हूँ । आह !
उसकी आँखों से आँसू आ गए। ऐसा लग रहा था जैसे भगवान भी गहरी नीद में सोये है और उनको कुछ पता ही नहीं चल रहा या वो खुद उसके दुःख का आनंद ले रहे है। साधना खेत मे आकर बैठ गयी, एक ओर दांतो से लिट्टी चबाये जा रही है और आँखों से आंसू निकलते जा रहे थे। एक टुकड़ा ही लिट्टी का खाया होगा की उसे लगा कोई उसके बाल पकड़ कर खींच रहा है, वह डर गयी कि कहीं कोई जानवर तो नहीं आ गया पर जिनकी गिनती इंसानो में की जाती है वो इंसान रूपी जानवर रन्नो थी। चिल्लाते हुए बोली दूसरे के घर का मांग कर खाती है चल आज तुझे मेवा खिलाती हूँ कहते हुए हाथ से लिट्टी छीन ली और खूब मारने लगी। चूंकि रात का समय था और आवाजे दूर तक सुनाई दे रही थी तो बहुत सारे लोग जुट गए और जब यह किस्सा सुना तो सभी रन्नो को कोसने लगे।
साधना के मायके वालो को बुलाया गया और वो उनके साथ बच्चों सहित चली गयी। कुछ महीने बाद जब बहादुर मुंबई से आया तो साधना को वापस इस शर्त पर घर लाया की वो अपनी माँ से अलग रहेगा। साधना का जीवन धीरे - धीरे सुधर रहा था और उसके जीवन में खुशियों की बरसात होने वाली थी।
एक साल के बाद उसने एक प्यारे से बेटे को जन्म दिया और अपने माथे पर लगे सारे कलंको को धो दिया। समय बीतता रहा और साधना ने दो और बेटों को जन्म दिया। बहादुर का घर चार बेटियों और तीन बेटों की खिलखिलाहट से गूंजने लगा। गांव में प्रधानी का चुनाव हुआ जिसमें साधना ने भी हिस्सा लिया और चुनाव जीत गयी। अब उसके जीवन में ख़ुशियाँ ही ख़ुशियाँ थी। आज और बीते हुए कल को सोचकर साधना की आँखों में ख़ुशी और दर्द दोनो के ऑंसू थे।
लेखक: भीम सिंह राही
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