सोमवार, 15 फ़रवरी 2021

बची हुई मानवता


                                       

  

राकेश और मैं हमेशा की तरह बातें करते हुए अस्पताल के बाहर आये और अपने विभाग की तरफ जाने लगे, पर सामने देखा तो कुछ भीड़ इकट्ठा थी। हमें लगा कोई मरीज होगा दिखाने आया होगा पर राकेश ने टोकते हुए कहा नहीं यार चल कर देखते है क्या हुआ है? वहां जाकर देखा तो एक बृद्धा जमीन पर बैठी थी और गार्ड बार-बार उससे कह रहा था आप यहाँ से चली जाओ चलो मै बस में बैठा देता हूँ पर वो बृद्धा बार-बार कह रही थी मै इलाज कराकर तभी जाउंगी। गार्ड बोला कैसे इलाज कराओगी तुम्हारे साथ तो कोई है भी नहीं। 

उस बृद्ध महिला की उम्र करीब साठ-पैसठ साल होगी, साँवला रंग, दुबली पतली  काया थी, कपड़े मैले-कुचैले थे, बाल सफ़ेद हो चुके थे पर धूल मिटटी और गन्दगी की वजह से अलग रंग के नज़र आ रहे थे।  ऐसा लग रहा था बिना कंघी के बाल भी गुस्सा होकर आपस में उलझे हुए है। मुँह में दांत आधे बचे हुए थे,जाने कितने दिन हो गए थे नहाये हुए ,शरीर से दुर्गन्ध आ रही थी ऊपर से घाव की सड़न की वजह से भी महक आ रही थी । उस बृद्धा को देख तो सभी रहे थे पर पूछ नहीं रहे थे कि क्या हुआ है, जब उसके पैरो पर नज़र गयी तो हमने देखा की उसने अपने पैर पर कपड़े और प्लास्टिक की पट्टी बांध रखी है।  धीरे धीरे भीड़ हटने लगी सभी अपने अपने काम में व्यस्त हो गए और वो बृद्धा फिर से अकेली हो गयी। 

हम लोग भी अपने कमरे में आकर बैठ गए पर राकेश कुछ सोच रहा था। वो अचानक उठा और बोला मैं अभी आ रहा हूँ।  राकेश उस बृद्धा के पास गया और उससे पूछा पैर में चोट कैसे लगी ? बृद्धा बोली- चौकी पर से गिर गयी। उसने अपना घर बिहार बताया और कहा की उसका बेटा उसे यहाँ छोड़ गया और कहकर गया की यही पर रहकर इलाज करा लो जब ठीक हो जाना तब आ जाना। अपनी व्यथा सुनाते-सुनाते उसके आँखों से गंगा यमुना निकलने लगी, दिल पसीज गया सुनने और और सुनाने वाले दोनों का।  

उसके पैर में घाव हो गया था और इन्फेक्शन शायद हो चुका था। राकेश ने उसका एक्सरे करवाया और पता चला की उसके पैर की हड्डी में मोच है।  डॉक्टर ने दवा लिख दी और राकेश ने उसके घाव की ड्रेसिंग करवा दी। जिस पैर में घाव था उस पैर को हाथ से ऊपर उठाकर तथा दूसरे हाथ के सहारे घिसट-घिसटकर चलती थी वो,अपने पैरो पर खड़ी नहीं हो पाती थी। मक्खियाँ उसके घाव पर बार बार आकर बैठती और वो हाथ के सहारे उन्हें बार-बार हवा में उड़ाती थी। उस बृद्धा के पास दुर्गन्ध की वजह से लोग जाना पसंद नहीं करते थे दूर से ही बात करते थे, राकेश उसको दवायें खरीद कर देता था, रोज उस बृद्धा की सेवा करता था, उससे देर तक बातें करता था, पर उसके पास भी इतने पैसे नहीं थे की वो उसका सही ढंग से इलाज करवा सके। जो इंसान कभी अपने लिए टिफिन नहीं लाता था उस बृद्धा के लिए खाना लेकर आता था। मैं भी कभी-कभी उसे बिस्कुट और समोसे दे आता था।  

मानवता आज  मानवता के काम आ रही थी इससे बड़ी जीत मानवता के लिए क्या हो सकती थी। पर धिक्कार है उस दानव रूपी बेटे का जिसने मानवता को शर्मशार करते हुए अपनी ही माँ को ऐसे अकेले छोड़कर चला गया और वो किस हाल में है ये भी पता नहीं करने आया। बृद्धा एक साल तक अस्पताल के बाहर अपना घर बनाये रखी, खुला आसमान उसका छत था और जमीन उसका सोने का बिस्तर, पास में केवल एक गन्दा सा झोला था जिसमे लोगो द्वारा दिए हुए खाने और एक-दो कपड़े थे। दिन में अस्पताल मरीजों से गुलज़ार रहता था वो मरीजों से बातें करती और अपने मन को हल्का करने के लिए अपना दुःख उनसे साझा करती थी पर पैसे कभी नहीं मांगती थी क्योकि उसे पैसे की जरुरत केवल इलाज के लिए थी आत्मिक संतोष के लिए नहीं। 

जब तक दवा का असर रहता था सबसे बातें करती पर दर्द जब बढ़ने लगता था तो कराहने लगती और न जाने उसने कितनी रातें कराहते हुए गुजारी और दिन में अपने जैसे हज़ारो लोगो को देखकर मन को सांत्वना देती थी।  राकेश कुछ दिन अपने काम की व्यस्तता के चलते उससे मिल नहीं पाया और एक दिन उस बृद्धा से मिला, उसने उसे नजदीक बुलाया और ऐसा लगा की जैसे कोई गुप्त बात बतानी हो। बृद्धा धीरे से बोली मेरे पास ढेर सारे पैसे है तुम ले जाओ कहकर अपने झोले से ढेर सारे सिक्को से भरी थैली निकाल कर देने लगी। राकेश ने मना कर दिया और बोला - तुम रख लो मुझे नहीं चाहिए इस पैसे से अपना इलाज करवाओ।  बृद्धा रोने लगी और बोली मेरे अपने बेटे ने मुझे घर से निकाल दिया और तुमने उससे भी बढ़कर मेरी सेवा की तुम ले जाओ ये पैसा वैसे भी अब इलाज कराने से क्या फायदा बूढ़ी हो गयी हूँ कुछ दिनों में मर जाउंगी । राकेश ने वो पैसा नहीं लिया। कुछ दिन बाद उसको पता चला उस बृद्धा का पैसा किसी ने ले लिया और फिर उसको दिया ही नहीं, एक दिन उसको गार्ड ने बस में बैठाकर बिहार भेज दिया पर चौदह दिन बाद फिर से  वो लौट आयी और करीब सात महीने यहाँ रही।  दोबारा उसके पास पैसे हो गए थे और वो राकेश को देना चाहती थी पर राकेश ने लेने से मना कर दिया। इस बार वो गयी तो वापस नहीं लौटी। राकेश कई दिनों तक परेशान रहा उसके लिए पर उस बृद्धा का क्या हुआ कोई नहीं जानता।

लेखक : भीम सिंह राही 



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