सोमवार, 9 मई 2022

एक बार मैं कहीं जा रहा था


एक बार मैं कहीं जा रहा था--
खुशियों के दरिया से मानो गमों के समंदर में मैं आ रहा था जिन तकलीफों को कम आंका था मैंने--
अब उन्हीं मुसीबतों में मैं एकाएक समा रहा था 
एक बार मैं कहीं जा रहा था।

जरा ठहरा देखने को
कि कितनी दूरी आखिर मेरे कदमों में ढांकी है 
और फासला अभी और कितना बाकी है--
आंखों में था सैलाब मेरी सांसो में हौसलों का दरिया था--
टूटना तो था ही इक दिन--
तोड़ने वाला तो बस एक जरिया था 
बस यूं ही खुद ही खुद की मुसीबत बनकर 
खुद ही खुद पर मैं जुल्म ढा रहा था--
एक बार में कहीं जा रहा था।---

जरा चलते-चलते थक कर बैठ गया 
और पूछा खुद से की आखिर तेरा क्या इरादा है--
बादशाहत है मंजिल तेरी या तू भी बस एक प्यादा है 
माना दिया गम खुदा ने सबकी जिंदगी में लेकिन 
दर्द फिर भी तेरा ही ज्यादा है--
बस यूं ही चलते चलते मैं अपने दुखड़े गा रहा था 
एक बार मैं कहीं जा रहा था।--

अब बस यूं ही ये रेत सा ये वक्त मेरी मुट्ठी से फिसलता जा रहा है--
अंतहीन सा ये रास्ता बस यूं ही आगे चलता जा रहा है
फर्क है तो बस इतना सा कि किसी के हैं कंधे हल्के तो किसी के ऊपर वज़न बहुत भारी है--
और कहां ढूंढू में अंत इस सफर का यह सफर मेरा अब भी जारी है।--
 ~ यस पाठक


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