शनिवार, 8 जुलाई 2017

वक्त

देखिए फिर ना मुझे 
इल्जाम दीजिएगा 
मैं गुजर गया तो फिर 
ना आवाज दीजिएगा 
एक मुद्दत से वक्त के 
पहिए को थामे हुए हूं मैं
हाथ छूट गया तो फिर 
ना हाथ दीजिएगा

।।प्रदीप सुमनाक्षर।।



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अधूरी

कई जन्मों से अधूरी हूँ
धड़कनों को लिए धूमती हूँ
तेरी तलाश में लोक परलोक घूमती हूँ


जानती हूँ इतना आसान नहीं है तेरा मिलना
इसलिए कई जन्मों को लिए घूमती हूँ


मेरी साँसों में है तेरी साँसों की महक
तेरी महक लिए जंगल जंगल घूमती हूँ


तू मुझ में समाया हुआ है
इस बात से अनजान
मै तेरे लिए दर दर घूमती हूँ


तू हवा में घुला है
मै तुझे जर्रे जर्रे में ढूँढती हूँ।



- Geetanjali Girwal



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शुक्रवार, 7 जुलाई 2017

दामिनी

तू चंड है........
तू प्रचंड है......
तू है वेग धारिणी....
तू है धरा विशाल......

गगन से ऊँचा है तेरा भाल
डगमग धरती डोले
जब तू अपना रूप खोले

तू दामिनी
तू गजगामिनी
तू सृष्टि की रचनाकार
पग पग तेरे संघर्ष हजार

आँगन से अंतरिक्ष तक तू है छाई
तू कोमल तुझमे श्रद्धा है अपार
जब जब मानवता ने नारी को मसला
रणचंडी बन तूने शीश उसका कुचला

पौरुष के दंभ में मत कर तू उसका अपमान
नहीं तो.... मिटा दिए जाएंगे तेरे निशान
इतिहास के पन्ने देते है यही गवाही
मर्यादा और धर्म की रक्षा के लिए
हमेशा से तू शस्त्र उठती आई

साहस की है तू मिसाल
इतिहास को तू है रचती
वर्तमान की तू है साक्षी
भविष्य की है तू पहरेदार

रौंधी कुचली मसली जाती
तेरी जात को गाली दी जाती
फिर भी तू हमेशा
मानवता को समर्पित मानी जाती

ऐसा है तेरा रूप विशाल
तेरा आस्तित्व है विकराल
तू पोषक है मानव की
गर्भ में रखती सारा संसार.
....... 

   

Geetanjali Girwal





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को ओर की (एक सच)


अजय सिंह ताज.... 7837304195

 कुछ गहरी बातें लिख रहा हूं / (को  ओर की )

 मां को तो सभी मानते हैं ,पर मां की नहीं मानता कोई /बाप को सभी मानते हैं ,पर बाप की नहीं मानते /भाई को सभी मानते हैं ,पर भाई की नहीं मानते /गुरु को तो सभी मानते हैं ,पर गुरु की कोई नहीं मानता /

 यह मेरी बातें कुछ ही लोग समझ रहे होंगे ,जो समझ गए वह समझ कर भी अगर अनजान बने रंहे तो फायदा नहीं कोई / 
 को और की यह लफ़ज  तो बहुत छोटे से हैं ,लेकिन गहराई बहुत ज्यादा है इन लफ्जों में /

 जिंदगी में अगर आप जिसको भी मानते हो अगर उसकी भी मानो तो कभी कोइ परेशानी में नहीं रहोगे / तब आपका रब भी साथ देगा /एक सच्चे इंसान को तो मान लेते हो आप लेकिन उस सच्चे रब जैसे इंसान की बातों को अगर ना मानो तो फायदा नहीं उस इंसान की इज्जत करके .......

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गुरुवार, 6 जुलाई 2017

जात

एक औरत सिर्फ़ एक औरत होती है
ना वो हिन्दू होती है, ना वो मुस्लिम होती है
ना वो सिख होती है, ना वो ईसाई होती है


जब वो चोट खाती है अपनी छाती पर
तब वो चोट जात पर नहीं, औरत की छाती पर लगती है
होता है दर्द एक सा, सभी औरतों का
सिसकती है सभी एक ही तरह
उसमे कोई रंग नहीं होता सियासत का

बच्चा जनने वाली एक औरत ही होती है
जो बनती है औरत से माँ
गुज़रते दर्द को सह कर एक इंसान का बच्चा जनती है
निःशब्द देखती रहती है तब भी
जब बच्चा रंग दिया जाता है
मज़हब और सियासत के रंग में

उसकी कोई जात नहीं होती
उसे बाँट दिया जाता है कई टुकड़ो में,
वो बंटती चली आ रही है सदियों से
और बंटती चली जायेगी अनंत तक
कभी हिन्दू बन कर, कभी मुस्लिम बन कर,
कभी सिख बन कर, तो कभी ईसाई बन कर

सिर मुंडवाने, दूजे घर बैठाने, चिता में जलाने,
तीन तलाकों से जो गुजरती है
वो भी औरत ही होती है
कोठो पर जो बिकती है वो भी औरत ही होती है
बलात्कार का दंश जो सहती है वो औरत ही होती है

इस रंग बदलती दुनिया में,

एक औरत सहती है, मरती है, रहती है,
बनती है और बिगड़ती है
जब एक मर्द अत्याचारी होता है
तो वो मात्रा अत्याचार का चेहरा होता है
ना वो हिन्दू होता है, ना वो मुस्लिम होता है
ना वो सिख होता है, ना वो ईसाई होता है
तब एक मर्द केवल एक मर्द होता है.........
और एक औरत केवल एक औरत होती है..........
...



#Geetanjali


                              

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नैना


"नैनो को न पढ़ सके कोय,जो पढ़ लेवे इनकी जुवान,
 ते पंडित नाही प्रियतम होय"

नैनो की अदा कुछ इस तरह निराली है 

कि, ये शातिराना अंदाज में ठगते भी है,

और ठगने वालों से बड़ी होशियारी से बचते भी है ये।



नैना मायूसी के साथ टक-टकी लगाकर निहारते भी है,

और कटुता के साथ टक-टकी लगा कर घूरते भी हैं ये।



नैनों गुस्ताखी भी करते है,
और नाफ़रमानी भी करते है ये।

नैना सादगी रखकर चंचलता भी करते है,
और खूबसूरती रखकर चालांकी भी करते है ये।

नैना हस्ते हुए भी रोते है,
और रोते हुए भी हस्ते है ये।

नैना खामोश रहकर भी सबकुछ कहते है, 
और सबकुछ कह कर भी खामोश रहते है ये।

नैना अंजान होकर भी सब समझते है,
और सब समझकर भी अनजान बनते है ये।

नैना ख्वाबो में खो कर भी जीवंत होते है,
और जीवंत होकर भी खुद को खयालो में खोते है ये।

नैना न चाहकर हर शख्स को परखते भी है,
और चाह कर किसी की खातिर लूटने से भी नहीं खुद को बख्शते है ये।

नैना खुद को अश्रु रूपी सागर में डुबोये भी रहते है,
और खुद में विशाल सागर को सँजोये भी रहते हैं ये।

नैना इलतजाओं को ईशारों-इशारों में मंजूर भी करते है,
और एक ईशारे में उन्हें नामंजूर भी करते है ये।

नैनो से छुपे हर राज जाहिर भी होते है,
और हर राज छुपाने में माहिर भी होते है ये।

नैना बातों-बातों में 100 सवाल कर लेते है,
इनकी कोई भाषा नहीं फिर भी हर भाषा में बात कर लेते है ये।

मदमस्त हो जाये अगर ये नैना तो  नाचीजों पर भी मेहरबान हो पड़ते है,
और खफा हो जाये तो जिगरी यारों पर भी कहर बनकर बरस पड़ते है ये।


Written By Ritika {Preeti} Samadhiya... Please Try To Be A Good Human Being....✍






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मैं



मैं उसकी चाहत हूँ जिस पर दुनिया मरती है।

मैं उसकी हसरत हूँ जिसकी चाहत दुनियां रखती है।

मैं उसकी आँखों में बस्ती हूँ जिस पर से लोगों की नजर नही हटती है।
मैं उसकी हकीकत हूँ जो औरों का ख्वाब है।
मैं उसका गुरूर हूँ जिसे पाने का औरों को जुनून है।
मैं उसका दिल हूँ जो औरों की धड़कनों के बढ़ने का कसूर है।

मैं उसका अहसास हूँ जिस पर लोगों के डगमगाते ख्यालात है।
मैं उसका ईमान हूँ जिस पर अच्छे-अच्छो के इरादे बेईमान है।
मैं उसकी आस हूँ जो औरों की न मिटने वाली प्यास है।

मैं उसकी तमन्ना हूँ जो औरों की दिली खवाइश है।
मैं उसकी सादगी हूँ जो औरों के लिए ख़ूबसूरती की आजमाइश है।
मैं उसकी नजाकत हूँ जो गर रखे कदम साथ तो औरों की हौसला हाफ्जाई है।
मैं उसकी शरारत हूँ जो औरों की आह निकाल देने वाली हिमाकत है।
मैं उसका अरमान हूँ जिसकी हसरतो के जाम लोग पिया करते है।
मैं उसकी याद हूँ जिसकी याद में लोग जिंदगी गुजार दिया करते है।

और तो और मैं उसका जज्बात हूँ जिस पर लोग बहक जाया करते है।....................
...............................सच कहूँ  वैसे तो मैं कुछ भी नहीं ..................................पर मैं उसकी,पर मैं उसकी ,पर मैं उसकी रूह की वो छुअन हूँ जो मुझे उससे छिनने पर हर उस शख्श को झकजोर जाया करती है।



Written By Ritika {Preeti} Samadhiya.... Please Try To Be A Good Human Being....✍


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संस्कार और स्वभाव

जरा हटके - नई कविता
संस्कार और स्वभाव

कहीँ भी ,
कभी भी और
किसी से भी , अक्सर हमको
यह उपदेश मिल ही जाता है-
जरूरी है बच्चों को
संस्कारित करना ।
ठीक भी है उनका , इस तरह

सचेत करते रहना ।

माता - पिता , करते भी हैं
दिन -रात , पूरे जतन से ,
बच्चों को संस्कारित
करने की समान कवायद ।
विवश करता है, सोचने को यह -

फिर क्यों नहीं मिलता उन्हें

एक ही संस्कार में पले -बढ़े

बच्चों से समान परिणाम ?
देखा समझा तो होगा ही इसे भी
एक जाता है मंदिर में तो
उसी घर का दूजा जाता है
मयखाने में !
सोचा है कभी इसका कारण

देने से पहले , किसी को

संस्कारों की दुहाई / समझाइस

या कोसते हैं - केवल कोसने के लिए
किसी भी माता पिता को।

कहना चाहता हूँ ,
ऐसे लोगों से-
गहरा सम्बंध होता है
संस्कारों का स्वभाव से हमारे ।
समझना होगा इसे - स्वभाव से ही 

बनते - बिगड़ते हैं संस्कार 

प्रभावित होता है जिससे

पूरा जीवन हमारा और परिवार का।
सफल बनना - बनाना है यदि इसे तो
बदलना ही होगा हमको वह स्वभाव ,
जिसके रहते , खो जाते हैं - संस्कार कहीँ ,
और भटक जाते हैं हम , यहां - वहां ।
स्वभाव से बनते हैं - संस्कार 

संस्कार से नही बनता स्वभाव

समझने के लिए इसे -

ले लें पौधा गुलाब का , जिसमें
होते हैं पुष्प भी और कांटे भी ।

एक सी परवरिश के बावजूद भी
पुष्प बिखेरता है - सुगंध
और कांटे देते हैं चुभन
यही है संस्कार और स्वभाव
मेरी नजर में। 
         - देवेंन्द्र सोनी , इटारसी।

         9827624219

        स्वरचित कविता 


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बुधवार, 5 जुलाई 2017

रंग

जरा हटके - नई कविता
रंग
जीवन में हम
कृतिम रंगों का तो
आंनद लेते हैं बहुत ।
हर रंग का अपना -अपना
होता है आकर्षण और महत्व
पर मैं तो दो ही रंग को
मानता हूँ असली ।
ये दो रंग ही साथ चलते हैं 

जीवन भर हमारे ।
कहते हैं इन्हें ,सुख और दुःख ।

सुख , होता है जितना प्रिय
दुःख देता है उससे कहीं अधिक पीड़ा
सुख को खरीद भी लेते हैं हम
सुविधाओं के रूप में
मगर आते ही पास
थोड़ा भी दुःख हमारे
घबरा जाते हैं हम ।
सुख का हर रंग अच्छा लगता है 

पर दुःख का कोई रंग नही भाता है ।
जबकि जानते हैं सुख और दुःख
एक ही सिक्के के दो पहलू हैं ।

सुख का रंग यदि आंकते हैं हम
सुविधाओं से, तो यह सुख नही है।
सुख तो आत्म संतोष का 

रंग बिखेरता है 
और दुःख होता है 
प्रेरणा के रंग से सराबोर , 
जो कहता है - 
डूब कर गुजरेगा यदि मुझमें तो
कुंदन सा दमकेगा जीवन में सदा।

समझना ही होगा हमको
इन दोनो रंग का भी महत्व
आएगी तभी सच्ची खुशहाली
जीवन में हमारे।
 
         देवेंन्द्र सोनी ,इटारसी।

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चालीस पार

#चालीस_पार

सुनो....प्रिये..... क्या संभव है
फिर से तुमसे प्यार करना
वो रात औ दिन को जीना
माना, अब वो खिंचाव ना
होगा मेरे अंदर, जो तुम्हे
बांधे रखता था पल पल

प्यार की गलिओं से निकल, 

अब भटक रही हूँ
गृहस्थी की गलिओं में।
याद आता है, तुम्हारा वो शरारत से देखना
देख कर मुस्काना, कनखियों से इशारा कर
बात बात पर छेड़ना

सिहर जाती थी मैं अंदर तक...
फिर से करना चाहती हूँ तुम से प्यार
क्या हुआ जो हम तुम हो गये चालीस पार....

मेरे प्यार का मतलब नहीं है, मात्र सहवास
तुम्हे सामने बैठा कर निहारना चाहती हूँ
घंटो बाते करते रहना चाहती हूं
रूठते , मनाते हुये,
फिर से देखना चाहती हूँ,
 
तुमको हँसते हुए।
जीना चाहती हूँ तुम में,

तुम को जीते हुए।
ये आवाज़ की तल्ख़ी
जिम्मेदारियों से है,
उलझे बाल, सब की तिमारदारियो से है

इससे तुम ना यू नजरे चुराओ
है आकर्षण आज भी, जो जागा था
देख कर तुमको पहली बार....
घर में राशन पानी भरती हूं, 
पर आत्मा से रोज भूखी सोती हूँ।
साथ व स्पर्श के लिए बैचेन रहती हूँ

जानती हूँ, तुम हो अपने काम में मशगुल
व्यस्तता का मतलब नहीं है
लापरवाही, ये भी जानती हूँ.....
मुझे तो मात्र चाहिए तुम्हारा साथ
नोकझोंक औ पहले सी मनुहार
रूठने पर मनाना, न मानने पर
तुम्हारा प्रणय निवेदन करना
बहुत याद आता है.....

दे दो मुझे एक प्लेट नमकीन प्यार
रोज़ शाम की प्याली के साथ....
औ मीठा सा नित्य चुम्बन,
सुबह की लाली के साथ...
लौटा दो मुझे फिर से मेरा संसार
आओ....ना.... प्रिये....... 
फिर से कर ले हम पहला प्यार
क्या हो गया जो हो गए हम चालीस पार........



- Geetanjali Girwal

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मंगलवार, 4 जुलाई 2017

वजह


जरा हटके -  नई कविता
वजह
कोई न कोई तो

वजह होती ही है

जन्म की भी , मृत्यु की भी
और इन दोनों के बीच
जीवन को जीने की भी।

यूँ ही नही जन्मता है कोई
एक पूरा विधान भी जन्मता है
उसके साथ, प्रारब्ध का ।
यही प्रारब्ध चलता है
मृत्यु पर्यन्त तक
जो कहलाता है भाग्य हमारा।

अर्थ कदापि इसका यह नही कि-

जियें केवल भाग्य के सहारे ।

पड़ती है जरूरत इसे भी, कर्म की
जन्म और मृत्यु के अंतराल में।

कर्म और प्रारब्ध मिलकर ही
बनते हैं , वह वजह जो -
ढालती है जीवन को हमारे
सम्पन्नता या दारिद्रय के सांचे में
उपजता है जिससे
सुख और दुख।

इस वजह को ठीक से यदि

समझ लें तो -

जन्म , मृत्यु और 
उसके अंतराल को 
दे सकते हैं हम 
सार्थक आयाम ।

    - देवेंन्द्र सोनी , इटारसी।
   

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सोमवार, 3 जुलाई 2017

सुख

जरा हटके - नई कविता
सुख

इतना आसान भी नहीं है

जीवन में सुखी होना !

क्या होता है सुख - 
इसे जानते भी हैं हम ?

उचित - अनुचित को अनदेखा करके
कमाते हैं धन -दौलत और
जुटाते रहते हैं जीवन भर
सुविधाओं का सामान ।
हो जाते हैं विलासिता के आदी

देकर इसे सुख का नाम !

माना , सुकून देता है यह सब
पर छिन जाती है इससे
संघर्ष की प्रवृत्ति हमारी।
राह भटकती है पौध नई जब

सुविधाएं पाकर सारी ।

मन रहता बेचैन सदा फिर
लगती हैं सुविधाएं भारी ।

नहीं कहता मैं -
हों न सुविधाएं पास हमारे
पर जरूरी है यह भी
नई पौध में खाद संघर्ष की डालें ,
महकते हुए होंगे फलित जब वे
होगा सुख , फिर सच्चा वही ।
होता है सिर्फ - सुख यही।
            - देवेंन्द्र सोनी , 
प्रधान संपादक, युवप्रवर्तक
इटारसी।

                          

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घर के मालिक बने किरायेदार


जिस घर की नींव जिन माता पिता ने रखी, अपने खून पसीने की कमाई को पाई पाई जुटाकर उस घर को बनाया, उस घर में उन ईंटों को जोड़ने में जितना मसाला नही लगा उससे कही ज्यादा प्यार भरकर उनमे उन ईंटों को लगाया जिससे की घर मज़बूत बने और उसमें एक भीनी सी खुशबू महक उठे ।
उस घर में अपनापन सा झलक उठे , कुछ इस कदर उन्होंने इस घर को स्वर्ग का रूप दिया....

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पापा



बाहर से है सख्त दिल मे बहोत नरमी है

कंधो पे चढके जिनके जिंदगी शुरू की है

वो ऊचाई जिंदगी मे ना दोबारा मिलती है

वो पापा ही तो है जिनमे मेरी जान बसती है। 
सब गलतिया हमारी कभी वो छिपाते नही है
छिपा कर के अपना प्यार जमकर बरस जाते है
वो शख्स जिसकी डांट सबसे ज्यादा असर करती है

वो पापा ही तो है जिनमे मेरी जान बसती है। 


जिंदगी मे उनकी कोई अपनी ख्वाहिश ना होती है

हमसे ही शुरू होकर खत्म हम पर हो जाती है

हमारी ही हंसी मे जिसको अपने गम की दवा मिलती है

वो पापा ही तो है जिनमे मेरी जान बसती है। 

जो लिखे ना गये कही नियमो मे जिंदगी बंधी है
थक कर रूकना तो उनकी फितरत मे ही नही है
चेहरे पर शिकन उनके फिर भी नही दिखती है
वो पापा ही तो है जिनमे मेरी जान बसती है



- Anupama verma

                                

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