जरा हटके - नई कविता
संस्कार और स्वभाव
कहीँ भी ,
कभी भी और
किसी से भी , अक्सर हमको
यह उपदेश मिल ही जाता है-
जरूरी है बच्चों को
संस्कारित करना ।
ठीक भी है उनका , इस तरह
सचेत करते रहना ।
माता - पिता , करते भी हैं
दिन -रात , पूरे जतन से ,
बच्चों को संस्कारित
करने की समान कवायद ।
विवश करता है, सोचने को यह -
फिर क्यों नहीं मिलता उन्हें
एक ही संस्कार में पले -बढ़े
बच्चों से समान परिणाम ?
देखा समझा तो होगा ही इसे भी
एक जाता है मंदिर में तो
उसी घर का दूजा जाता है
मयखाने में !
सोचा है कभी इसका कारण
देने से पहले , किसी को
संस्कारों की दुहाई / समझाइस
या कोसते हैं - केवल कोसने के लिए
किसी भी माता पिता को।
कहना चाहता हूँ ,
ऐसे लोगों से-
गहरा सम्बंध होता है
संस्कारों का स्वभाव से हमारे ।
समझना होगा इसे - स्वभाव से ही
बनते - बिगड़ते हैं संस्कार
प्रभावित होता है जिससे
पूरा जीवन हमारा और परिवार का।
सफल बनना - बनाना है यदि इसे तो
बदलना ही होगा हमको वह स्वभाव ,
जिसके रहते , खो जाते हैं - संस्कार कहीँ ,
और भटक जाते हैं हम , यहां - वहां ।
स्वभाव से बनते हैं - संस्कार
संस्कार से नही बनता स्वभाव
समझने के लिए इसे -
ले लें पौधा गुलाब का , जिसमें
होते हैं पुष्प भी और कांटे भी ।
एक सी परवरिश के बावजूद भी
पुष्प बिखेरता है - सुगंध
और कांटे देते हैं चुभन
यही है संस्कार और स्वभाव
मेरी नजर में।
- देवेंन्द्र सोनी , इटारसी।
9827624219
स्वरचित कविता