गुरुवार, 12 अप्रैल 2018

लघु कहानी - दादी का प्रेम



         शांतिधाम में दादी की चिता को मुखाग्नि देते हुए रमेश के आंसू थमने का नाम नही ले रहे थे । उसके पिता भी प्रायश्चित की वेदना में दग्ध होते हुए रमेश के कांधे को सहलाकर उसे सांत्वना दे रहे थे मगर रमेश पर अपने पिता की इस संवेदना का जैसे कोई असर ही नही हो रहा था । वह उन्हें  हिकारत की नजर से देखता और परिक्रमा के लिए आगे बढ़ जाता । श्रद्धाजंलि के पश्च्यात एक एक करके सभी चले गए । रह गए तो सिर्फ पिता और पुत्र । विषाद में डूबे रमेश को कई बार पिता ने घर चलने को कहा पर रमेश टस से मस भी नही हुआ । 
      रोते रोते उसकी आँखे सूज गई थीं । श्मशान की खामोशी और मंद होती चिता की अग्नि ने जब उसे अँधेरे का एहसास कराया तब न चाहते हुए भी रमेश उठा और लड़खड़ाते कदमों से धीरे - धीरे घर लौट आया । रात को बाहर दालान में डली बिछात पर अधमरा सा वह जैसे ही लेटा आसमान में छिटके तारों ने उसकी यादों की पोटली खोल दी । कितनी अलग अलग कहानियां सुनी थी उसने अपनी दादी से इन तारों के बारे में । जितना वह उससे प्रेम करती थीं उतना ही तो इन तारों से भी करती थी। इन्ही तारों में से कोई एक तारा था जो उसके दादाजी थे । दादी कहती थी - मृत्यु के बाद सब तारा बन जाते हैं और हम सबको देखते रहते हैं ।
उनकी नजर हमारे सब कामों पर होती है इसलिए हमको वही करना चाहिए जो गलत न हो और दादाजी को अच्छा लगता हो । दादी उसे बताती थी - इन्हीं तारों में हमारे पूर्वज भी होते हैं जो हमको देख - देख कर खुश होते हैं । इन्हीं के बीच एक दिन मैं भी तारा बन जाऊंगी और वहीं से तुझे देखती रहूंगी। तुझे कभी अकेला नहीं छोडूंगी । 
     तो क्या .... तो क्या ... दादी भी आज सचमुच तारा बन गई । क्या वे मुझे देख रही हैं ! इतने तारों में अब कैसे पहचानूँ मैं उन्हें । अपलक आसमान को निहारते हुए रमेश की विचार श्रृंखला थमने का नाम नही ले रही थी । 
       उसे याद आ रहे थे बचपन के वे दिन जब पिता उसे गांव में दादी के पास छोड़कर शहर चले गए थे । दादी ने ही उसे पाल पोस कर बड़ा किया था और सदैव नेक राह पर चलने की प्रेरणा दी थी । अच्छी शिक्षा और संस्कार देते हुए एक दिन दादी ने उसे बताया था - रमेश तुझ में तेरे दादाजी के सारे गुण हैं । उनका मान रखना । जब कभी मुखाग्नि देने का वक्त आए , तू ही मुझे मुखाग्नि देकर अपने दादाजी के पास भेजना । हम दोनों तारे सदा तेरी रखवाली करेंगे । कभी अकेला नहीं छोड़ेंगे। 
      रो दिया था रमेश , उस दिन भी अपनी दादी के मुख से यह सुनकर । माँ का प्यार तो उसने देखा नही था और पिता दूसरी शादी करके शहर जा बसे थे । कभी कभार किसी जरूरत पर हाल चाल पूछने गांव चले आते थे और दादी का मन दुखी करके चले जाते थे। उसे नफरत हो गई थी अपने पिता के इस व्यवहार से पर दादी के मना करने से वह उनसे कभी भी कुछ कह नही पाया । 
       आज सुबह जब मुखाग्नि देते समय पिता ने उसके कांधे पर हाथ रखा तो झटक कर हिकारत की नजरों से देखा था उसने । 
   पर अब , आसमान को निहारते हुए उसे ऐसा लग रहा था जैसे दादी अपने प्रेम की दुहाई देते हुए कह रही हैं - माफ़ कर दे रमेश ! अपने पिता को माफ़ कर दे! तेरी मां के जाने के बाद मुझे बेबस अकेला नहीं छोड़ा था उसने । मेरी गोद में तुझे दे गया था । तेरे प्रेम के सहारे ही तो मैने अपना बुढ़ापा काटा है , रमेश । यदि वह तुझे भी अपने साथ ले जाता तो मैं किस के सहारे जीती । मेरा वात्सल्य और तेरा मेरे लिए प्रेमानुराग ही तो मेरे जीवन की पूंजी है । क्या मेरी बात नहीं मानेगा । वैसे भी उसे सजा तो मिल ही चुकी है । उसकी दूसरी पत्नी भी उसे छोड़कर जा चुकी है और मैने भी अपनी वसीयत में मुखाग्नि का अधिकार और सम्पत्ति का वारिस तुझे ही बनाया है। 
   दूसरे दिन जब रमेश ने वसीयत पढ़ी तो उसमें वही लिखा था - जो कल रात तारे देखते हुए रमेश को महसूस हो रहा था । 
    सच ! यह है प्रेम बेटे के लिए भी और अपने नाती के लिए भी। मरणोपरांत भी दे गई दादी अपनी वसीयत में प्रेम से रहने का संदेश।
        - देवेन्द्र सोनी , इटारसी।
          9111460478

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