शनिवार, 16 दिसंबर 2017

जरा हटकर - छवि


रोज ही देखता हूँ , मैं
दर्पण में अपनी बदलती हुई छवि


पल पल बदलते रहना ही
खासियत होती है इसकी
जो क्रमशः इठलाती हुई 
बढ़ती है शिखर की ओर,
और फिर अचानक से शिथिल हो
लुढ़कने लगती है वहां से 
कराते हुए यह एहसास, कि
नहीं रह सकता कोई 
शिखर पर आजीवन।


लुढ़कते हुए ही आना होता है उसे 
फिर जमीं पर ।

छवि कहती है - 
देखो मुझे नित्य ही 
और सीखो यह -
धरा पर आए हो 
सिर्फ धरा के लिए। 


फिर ये गुमान , कैसा ?

       - देवेंन्द्र सोनी , इटारसी।

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शुक्रवार, 15 दिसंबर 2017

लेख - अनावश्यक हस्तक्षेप से बिखरते रिश्ते

           
        वर्तमान समय में रिश्तों में बिगाड़ और बिखराव एक गम्भीर समस्या बनती जा रही है। बात बात पर रिश्ते बिगड़ जाना और फिर आपस में संवाद हीनता का पसर जाना रिश्तों को कहीँ दूर तक बिखरा देता है,जिन्हें फिर से समेटना मुश्किल हो जाता है। घर , परिवार , समाज या अन्य रिश्ते नातों में निरन्तर आ रहे बिखराव की आखिर वजह क्या है ? जाहिर है इस प्रश्न के उत्तर में कोई एक कारण नही हो सकता । हर रिश्तों में अलग अलग कारण और परिस्थितियां होती हैं । जिन्हें समय रहते समझना जरूरी होता है। रिश्ते यदि किसी अनावश्यक हस्तक्षेप की वजह से बिखरते हैं तो अक्सर किसी के हस्तक्षेप से ही सुधरते भी हैं । इसे भी ध्यान में रखा जाना चाहिए ।

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शनिवार, 9 दिसंबर 2017

लेख - "कवि रघुवीर सहाय"

हिंदी साहित्य के विलक्षण कवि
       

 - "कवि रघुवीर सहाय"

संदर्भ :- 9 दिसंबर जन्म दिवस
    राजेश कुमार शर्मा"पुरोहित"

    दूसरा सप्तक के कवियों में प्रमुख नाम रघुवीर सहाय का आता है। हिंदी के विलक्षण कवि,लेखक,पत्रकार,संपादक,अनुवादक,कथाकार,आलोचक।रघुवीर सहाय का जन्म 9 दिसंबर1929 को लखनऊ उत्तर प्रदेश में हुआ था।इन्होंने 1951 में अंगेजी साहित्य में स्नातकोत्तर किया। 1946 से साहित्य सृजन करना प्रारंभ किया। इनका विवाह 1955 में विमलेश्वरी सहाय से हुआ। 
             इनकी प्रमुख कृतियाँ 'सीढ़ियों पर धूप में','आत्म हत्या के विरुद्ध','हँसो हँसो जल्दी हँसो','लोग भूल गए हैं','कुछ पते कुछ चिट्ठियां','एक समय था' जैसे कुल छह काव्य संग्रह लिखे। 'रास्ता इधर से है'(कहानी संग्रह),'दिल्ली मेरा परदेश' और 'लिखने का कारण'(निबन्ध संग्रह) उनकी प्रमुख कृतियाँ है।
रघुवीर सहाय हिंदी के साहित्यकार के साथ साथ एक अच्छे पत्रकार थे,उन्होंने पत्रकारिता की शुरुआत लखनऊ से प्रकाशित दैनिक नवजीवन में 1949 से की। 1951 के आरंभ तक उप संपादक और सांस्कृतिक संवादाता रहे,उसके बाद 1951-1952 तक दिल्ली में "प्रतीक" के सहायक संपादक रहे। 1953-1957 तक आकाशवाणी के समाचार विभाग में उपसंपादक रहे।
                     रघुवीर सहाय की 'बारह हंगरी कहानियां' राख और हीरे शीर्षक से हिंदी भाषान्तर भी समय समय और प्रकाशित हुए। उनकी कविताओं के भाषा और शिल्प  में पत्रकारिता का तेवर दृष्टिगत होता है। तीस वर्षों तक हिंदी साहित्य में अपनी कविताओं के लिए रघुवीर सहाय शीर्ष पर रहे। समकालीन हिंदी कविता के महत्वपूर्ण स्तम्भ रघुवीर सहाय ने अपनी कविताओं में 1960 के बाद की हमारी देश की तस्वीर को समग्रता से प्रस्तुत करने का काम किया। उनकी कविताओं में नए मानवीय सम्बन्धो की खोज देखी जा सकती है। वे चाहते थे कि समाज में अन्याय और गुलामी न हो तथा ऐसी जनतांत्रित व्यवस्था निर्मित हो जिसमें शोषण,अन्याय,हत्या,आत्महत्या,विषमता,दास्तां, राजनीतिक संप्रभुता,जाती धर्म में बंटे समाज के लिए कोई जगह न हो।
      वे चाहते थे किआजादी की लड़ाई जिन आशाओं और सपनों से लड़ीं गयी है उन्हें साकार करने में यदि बाधाएं आती है तो उनका विरोध करना चाहिए। उन्होंने उनकी रचनाओं का विरोध भी किया।
                 1984 में रघुवीर सहाय को कविता संग्रह (लोग भूल गए है) के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उनकी का कविताओं में आम आदमी को हांशिये पर धकेलने की व्यथा साफ दिखाई देती है। उनकी कविता की कुछ पंक्तियां देखिये:-
      *जितनी बूंदे 
      उतने जो के दाने होंगे
      इस आशा में चुपचाप गांव यह भीग रहा है
1982-1990 तक इन्होंने स्वतन्त्र लेखन किया। 'वे तमाम संघर्ष जो मैंने नही किये अपना हिसाब मांगने चले आते है' ऐसी पंक्तियां रचने वाले रघुवीर सहाय जन मानस में एक दीर्घजीवी कवि थे जिनकी कविताये स्वतन्त्र भारत के निम्न मध्यम वर्गीय लोगो की पीड़ा को दर्शाती है। नई कविता के दौर में रघुवीर सहाय का नाम एक बड़े कद के कवि के रूप में स्थापित हुआ था। 1953 में रघुवीर सहाय एक छोटी सी कविता लिखते है-
   *वही आदर्श मौसम
   और मन में कुछ टूटता सा
   अनुभव से जानता हूं कि यह बसन्त है*
रघुवीर सहाय की अधिकांश कविताये विचारात्मक और गद्यात्मक है। वे कहते थे 'कविता तभी होती है जब विषय से दूर यथार्थ के निकट होती है'। रघुवीर सहाय भाषा सजक रहे है। उनकी भाषा बोल चाल की भाषा है। आदमी की भाषा में छिपे आवेश को बनाने का प्रयास रघुवीर सहाय करते थे।
    भारत में आदमी की समस्याओं और विरोधी व्यवस्था में राजनीति तथा जीवन के परस्पर सम्बन्ध को बचाये रखने का प्रयास उनकी कविताओं में दिखाई देता है।
   -98,पुरोहित कुटी,श्रीराम कॉलोनी,भवानीमंडी, पिन- 326502,
जिला-झालावाड़
राजस्थान


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शुक्रवार, 8 दिसंबर 2017

लेख - लोग क्या कहेंगे ?

लोग क्या कहेंगे?
       परिदृश्य चाहे वैश्विक हो , राष्ट्रीय हो , सामाजिक हो या पारिवारिक हो - कुछ भी करने से पहले यह प्रश्न हमेशा सालता है कि - लोग क्या कहेंगे ? उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी और इसका हमारे मूल्यों , सिद्धान्तों और जीवन पर क्या असर पड़ेगा ! चिन्तन का पहलू यह होना चाहिए -  हमको लोगों के कहने की कितनी परवाह करना चाहिए क्योंकि आप यदि अपने नजरिये से अच्छा भी करते हैं तो जरूरी नही कि वह अन्य व्यक्तियों की नजर में भी अच्छा ही हो । सबका नजरिया अलग अलग होता है । फिर , लोगों का तो काम ही है कहना ! 
     यहां मुझे एक बोध कथा याद आ रही है  -  एक पिता पुत्र ने मेले से खच्चर खरीदा और उसे लेकर घर की ओर निकले । रास्ते में किसी ने कहा - कैसा पिता है , खच्चर होते हुए भी बेटे को पैदल ले जा रहा है । पिता को भी लगा तो उसने अपने बेटे को खच्चर पर बैठा दिया और खुद पैदल चलने लगा । आगे चलने पर किसी ने कहा - कैसा बेटा है , बूढ़ा बाप पैदल चल रहा और जवान बेटा शान से सवारी कर रहा। अब दोनों ही खच्चर पर बैठ गए तो फिर किसी ने कहा - क्या लोग हैं , मरियल से खच्चर पर बैठकर जा रहे , खच्चर का जरा ध्यान नही ! 
      इस सन्दर्भ का तातपर्य सिर्फ इतना ही बताना है कि आप कुछ भी करें - लोग तो कहेंगे ही । निर्णय आपको करना है कि आप उसे कितनी तबज्जो देते हैं।


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बुधवार, 6 दिसंबर 2017

लघु कहानी - अपराध बोध


       रमा कई दिनों से अपने पति सुरेश को बेचैन देख रही थी । दिन तो काम काज में कट जाता पर रात को उसे करवटें बदलते रहने का कारण समझ नही आ रहा था । वह हर सम्भव अपने पति को खुश रखने का प्रयास करती पर नतीजा सिफर ही रहता । कई बार उसने रमेश से कारण जानना चाहा पर वह टाला मटोली कर जाता और भरसक प्रयत्न करता कि रमा को इस तरह का कोई एहसास न हो लेकिन उसकी बेचैनी और अनिद्रा का उस पर वश नही था। 
      कुछ दिन तो रमा ने यह सोचकर तसल्ली रखी कि - हो सकता है , रमेश अपने काम काज की वजह से परेशान हों और उसे अपनी परेशानियों में शामिल नही करना चाहते हों  मगर जब नित्य ही यह स्थिति बनने लगी तो रमा अपने अस्तित्व को लेकर आशंकित हो उठी । उसे लगने लगा - जरूर  सुरेश की जिंदगी में कोई और ने अपना स्थान बना लिया है । धीरे - धीरे इस विचार से दोनों के बीच संवाद हीनता पसर गई। सुरेश तो परेशान था ही अब रमा भी अवसाद में आ गई। दोनों बच्चों पर भी इसका असर पड़ने लगा और वे भी बात - बात पर झल्लाने लगे। पारिवारिक स्थिति जब अनियंत्रित होने लगी तो एक दिन रमा ने सुरेश से कहा - आखिर ऐसा कब तक चलेगा ? यदि मुझसे मन भर गया है तो मुझसे कह दो । इस तरह तो मेरी और बच्चों की जिंदगी ही बरबाद हो जायेगी । तुम अपनी सेहत का भी ध्यान नही रख रहे हो । कैसे और कब तक चलेगा यह सब ? रमा की बातें सुनकर सुरेश फफक पड़ा। बोला - ऐसा कुछ नही है रमा ! तुम ऐसा सोच भी कैसे सकती हो ! हां , इन दिनों मैं बहुत परेशान हूँ । एक ऐसे अपराध बोध से ग्रस्त हूँ - जिसने मेरे दिन का चैन और रातों की नींद उड़ा दी है। अपराध भी ऐसा जो मुझसे अनजाने में या अनदेखी में हो गया । बस उसी अपराध बोध ने मेरा यह हाल कर दिया है। 
     सुरेश के आंसू पोंछते हुए रमा ने पूछा - आखिर ऐसा क्या हो गया है । तब सुरेश बोला - रमा , एक दिन मैं अपने मित्र को देखने अस्पताल गया था । वह कई दिनों से बीमार था । उसके बिस्तर के पास ही एक दो - तीन साल का बच्चा भी भर्ती था जो किसी गम्भीर बीमारी से पीड़ित था । मैंने उस पर कोई ध्यान नही दिया। अस्पताल में तो जाने कौन - कौन भर्ती रहते हैं । तभी डॉक्टर से सुना था - उस बच्चे को रक्त की तुरन्त जरूरत है । जिस ग्रुप की उसे जरूरत थी वह कहीं नही मिल रहा था लेकिन मेरा ब्लड ग्रुप वही था । यह जानते हुए भी कि यदि उस बच्चे को ब्लड नही मिला तो उसका बचना नामुमकिन है । पता नही मुझे डॉ . से यह कहने की हिम्मत क्यों नही हुई कि - आप मेरा ब्लड लेकर इसकी जान बचा लीजिये। मैं वापस घर आ गया लेकिन जब दूसरे दिन अस्पताल गया तो पता चला वह बच्चा तो चल बसा। 


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शनिवार, 2 दिसंबर 2017

लेख - वैवाहिक जीवन में बिखराव


  क्यों बढ़ रहा है वैवाहिक जीवन में बिखराव ?

       वैवाहिक जीवन में निरन्तर बढ़ रही बिखराव की घटनाओं ने न केवल प्रभावितों को अपितु समाज को भी चिंता में डाल दिया है। इससे केवल व्यक्ति, परिवार या समाज ही नही अपितु समग्र वातावरण भी दूषित होते जा रहा है । 
         सर्वे बताते हैं कि अनेक परिवार बिखराव के भयानक दौर से गुजर रहे हैं । यदि समय रहते इस ओर ठोस पहल और सकारात्मक वातावरण निर्मित नही किया गया तो आने वाली पीढ़ी और समाज अनैतिकता , अराजकता के माहौल में दम घोंट देगा।
       हम सब जानते हैं कि वैवाहिक बंधन परस्पर सामंजस्य और विश्वास से ही फलीभूत होता है। वातावरण , परिस्थितियां कैसी भी हों यदि पति -पत्नी में तालमेल है तो अनचाहे बिखराव को रोका जा सकता है। यही मूल निवारण भी है। 


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