वसंत
अपने समापन की ओर था,
वृक्षों
पर नए पत्तों ने नव जीवन धारण
कर लिया था। प्रकृति खूब खिलखिला
रही थी। उसके खिलखिलाने और
ऐसा लगने के पीछे एक कारण यह
भी था की इंसान मजबूर होकर
घरों में कैद था। दूसरा यह की
आधुनिक संसाधनों के बीच इंसान
प्रकृति की उस सुंदरता और
अपनेपन को महसूस कर रहा था।
ठीक उसी तरह जैसे एक अबोध बालक
कोई संकट भांपकर अपनी माँ की
गोद में छुप जाता है।
कृष्ण
चंद्र ठाकुर घर के आंगन में
अकेले बैठे ऊंघ रहे थे। नीम
के पेड़ की गहरी छाया और शीतल
हवाओं का यह आनंद उन्हें बरसों
बाद प्राप्त हुआ था। पैसे की
दौड़ -
धुप
में सब कुछ पीछे छूट गया था,
अब
यह आनंद पाकर वह कहीं जाना
नहीं चाहते थे।
घर
के ठीक सामने एक और मकान था,
जिसमे
उस्मान मियां रहते थे। वाराणसी
में लंका मार्किट में उनकी
किराने की दुकान थी। आजकल
छुआछूत की बीमारी के कारण
दुकान न जा पाते थे।दिल में
सेवाभाव था और घर खाली बैठे
मन न लगता था इसलिए वे किसी
सामाजिक संगठन के साथ मिलकर
जरूरत मंद लोगों की सहायता
करने चले जाया करते थे।
ठाकुर
ने सूर्य की रोशनी से बचते हुए
अपनी एक आँख खोलकर कहा “काहे
का धर्म पुण्य मियां,
पुण्य
कमाते -
कमाते
भी यह बीमारी देख रहे हैं।हमने
तो कभी जीव हत्या का पाप तक
नहीं किया। “
मियाँ
ने अपने साईकिल की गद्दी झड़काते
हुए कहा “अल्लाह का अजाब है
ठाकुर साहब,
सेवा
करके ही चुकाया जा सकता है।और
वैसे भी यहां बैठे -
बैठे
मुझे तो खुजली होने लगती है
दो लोगों की मदद करूंगा तो कुछ
सुकून मिलेगा।आपको कुछ चाहिए
तो बताइये,
लेता
आऊंगा “
ठाकुर
कुर्सी छोड़ अंदर चले गए,
मियां
ने साईकिल तैयार कर ली थी ,
वह
सवार होकर निकलने ही वाले थे
की ठाकुर हाथ में पैसे लिए आते
दिखाई दिए। ठाकुर ने दरवाजे
पर पहुंच कर कहा “ये कुछ रूपये
हैं,
जरूरतमंद
लोगों के लिए। ठकुराइन की
तबियत आपको पता ही है। ऐसे समय
बस यही मदद कर सकते हैं। “
मियां
का हदय उमड़ पड़ा “ऐसे समय नेक
कार्य में आपका यह योगदान
......... लोग
दुआएं देंगे आपको “ एक टक उसकी
उसकी तरफ देखते रहे। फिर रूपये
जेब में रखे ,
ठाकुर
की तरफ एक मीठी मुस्कान देकर
वह निकल पड़े पड़े।
बनारस
की गलियां जीवन की तरह टेढ़ी
मेडी मेडी व् घुमावदार है
परन्तु उलझी हुई बिलकुल भी
नहीं,
क्यूंकि
यहां गलियों के हर कोने पर एक
मंदिर है। मंदिरों के कोने
पकड़ कर भगवान विश्वनाथ
की नगरी में बिना किसी उलझन
के जीवन यापन सम्भव है। कृष्ण
चंद्र ठाकुर पूरा दिन अपने
घर के आंगन में गुजारते छांव
के साथ अपनी कुर्सी सरकाते
रहते ,
कभी
आम के पेड़ से किसी पंछी द्वारा
गिराए आम को उठा कर टोकरी में
रख आते। लोगों में छूत की बीमारी
के चलते न तो अब वह शरारती बच्चे
आम तोड़ने आते न ही ताश की गद्दी
लिए हमउमर। सारा दिन बैठे -
बैठे
आने -
जाने
वालों की टोह लेते रहते। थोड़ा
सुकून मिलता जब उस्मान मियां
कभी -
कभी
घर आ जाते थे। मिंया काफी
मिलनसार थे,
ठाकुर
साहब उनके साथ बैठकर अक्सर
धर्म कर्म की बातें किया करते
थे। आज जब नीम की छाया आंगन
छोड़ दूर चली गयी तब से ही कृष्ण
चंद्र उस्मान मियां की राह
ताक रहे थे। आज उन्हें कुछ कुछ
उत्सुकता थी।वह ,
आज
किये गए कार्यों की जानकारी
लेना चाहते थे। वह उस सुख को
अनुभव करना चाहते थे जो सेवा
करके किसी इंसान को मिलता है
वह बाहर की स्थिति का जायजा
लेना चाहते थे,
क्या
सच में लोग सड़कों पर भूखे हैं
? गरीब
परिवारों का पालन पोषण कैसे
होता होगा ?
सरकार
ने क्या इंतज़ाम किया है ऐसे
लोगों के लिए ?
इन्ही
विचारों से दिल में दबी सेवा
भावना बाहर आने लगी। तभी
उन्होंने साईकिल की आवाज सुनाई
दी।चेहरे पर मुस्कान लौट आयी।
.. मन
ही मन मियां के नेक कार्यों
के लिए कसीदे गढ़ रहे थे। मियां
चुप -
चाप
बिना कुछ कहे अपने घर चले गए
और फिर न लौटे तो कृष्ण चंद्र
का मन कुलांचे मारने लगा। मन
ही मन सोच रहे थे,
“आज
क्या हुआ ,
रोज
तो आवाज देकर जाते थे। कहीं
कोई बीमारी घर तो नहीं ले आये
? कहीं
पुलिस के डंडे तो नहीं खा आये
? नहीं
- नहीं
ऐसे कर्मों लिए पुलिस नहीं
मारती। तो फिर बात क्या है ?”
ठाकुर
ने दरवाजे से आवाज दी ,
कई
बार आवाज देने के बाद मियां
मुँह लटकाये बाहर आये।
ठाकुर
ने दरवाजा खोला और अंदर आते
मियां से कहा “क्या बात है
मियाँ,
ऐसे
मुँह लटकाये तो कभी नहीं देखा
तुम्हें। “
- मियां ने अपनी टोपी उतारते हुए कहा “मनुष्य के मरने से भी ज्यादा दर्दनाक होता है उसकी पहचान का मर जाना। “
- बिलकुल सही फ़रमाया आपने, मगर बात बात क्या है ? कृष्ण चंद्र ने गंभीर पूछा।
- उससे भी दर्दनाक होता है पहचान का बदनाम होना।
- क्या बात है मियां साहब , किसी ने कुछ कहा ?
दोनों
आंगन में कुर्सी पर बैठे,
धुप
अब बराबर आँगन में बिखरी हुई
थी,
केसरिया
सूरज अब धीरे -
धीरे
डूबता जा रहा था। मियां लगातार
सूरज को देखकर सोच में डूबे
हुए थे। कृष्ण चंद्र ने उनके
भावों को जानने की कोशिश की
मगर नाकाम रहे।
तभी
उस्मान मियां बोले “ ये बताओ,
क्या
भूख भी किसी मजहब की गुलामी
करती है ?“
कृष्ण
चंद्र चौंके “ ये कैसा सवाल
है ,
इंसान
भले मजहब का गुलाम हो जाये मगर
भूख. …
नहीं
नहीं ,भूख
कैसे हो सकती है ?“
मियां
की आँखे भर आयी,
उसने
डूबते सूरज की तरफ देखते हुए
कहा “ आज जब हम खाना बाँट रहे
थे, तब
मैने भी बहुत से लोगों को खाना
दिया,
बहुत
से लोग जो सड़कों पर अपनी जिंदगी
गुजारते हैं,
भूखे
होते हैं। वहां से एक गाड़ी भी
गुजरी जिसमे कुछ लोग थे,
उन्होंने
पानी के लिए आवाज दी। मैं लेकर
दौड़ा,
एक
आदमी ने हाथ बढ़ाया। जब मैं पास
पहुंचा तो उसने मेरी टोपी को
देखा और अपना हाथ समेट लिया।
वो तो चला गया मगर मुझे भूखा
छोड़ गया,
अनगिनत
सवालों की भूख। “
कृष्ण
चंद्र कुछ न बोले,
वह
भी सूर्य की तरफ देखते रहे।
मियां
फिर से बोले “क्या यह मेरी
पहचान पर लगा कलंक नहीं है ?
अच्छे
बुरे लोग हमेशा रहे हैं ,
मगर
यूँ भूख/प्यास
ने कभी अपना मजहब नहीं ढूंढा।मजहब
लड़ते रहे हैं और लड़ते रहेंगे,
मजहबी
लोग तो मरते रहेंगे। मगर,
मेरे
दिल पर लगा “मजहबी भूख” का यह
दाग न जाने कब मरेगा।”
कृष्ण
चंद्र कुछ न बोले वह सूर्य को
उसकी आखिरी केसरिया किरण को
समेटते हुए देखते रहे।
लेखक : सारथी
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