सोमवार, 23 अप्रैल 2018

इस हरियाणे मैं, के मरोड़ सै।

खड़ी बोली, अर ऊँची नाक 
दिल का थोड़ा कठोर सै। 
रिडक - झिड़क कै, भिड़कै  मरज्या 
न्यू बाताँ का सा तोड़ सै। 
न्यूए ना बुज्झै कोए 
इस हरियाणे मैं, के मरोड़ सै। 

खाली बस्ते अर फौजी दस्ते 
खेलां का गठजोड़ सै। 
हांस कै बतलाले, तो जान तै  प्यारे 
ना तो, सांसा का भी तोड़ सै। 
न्यूए ना बुज्झै कोए 
इस हरियाणे मैं, के मरोड़ सै। 

धरती खोद सोना उगादे 
काम का पूरा खोर सै। 
चालै  गोली, तो सीना अड़ादे
न्यू , बॉर्डर पै भी शोर सै 
न्यूए ना बुज्झै कोए 
इस हरियाणे मैं, के मरोड़ सै।  

दूध दही ओर टिंडी घी 
पशुधन का जोर सै। 
असली धन तै, युवा म्हारे 
जिनकी, अंतरिक्ष तक दौड़ सै।  
न्यूए ना बुज्झै कोए 
इस हरियाणे मैं, के मरोड़ सै 

     -   सुभाष वर्मा 

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गुरुवार, 12 अप्रैल 2018

लघु कहानी - दादी का प्रेम



         शांतिधाम में दादी की चिता को मुखाग्नि देते हुए रमेश के आंसू थमने का नाम नही ले रहे थे । उसके पिता भी प्रायश्चित की वेदना में दग्ध होते हुए रमेश के कांधे को सहलाकर उसे सांत्वना दे रहे थे मगर रमेश पर अपने पिता की इस संवेदना का जैसे कोई असर ही नही हो रहा था । वह उन्हें  हिकारत की नजर से देखता और परिक्रमा के लिए आगे बढ़ जाता । श्रद्धाजंलि के पश्च्यात एक एक करके सभी चले गए । रह गए तो सिर्फ पिता और पुत्र । विषाद में डूबे रमेश को कई बार पिता ने घर चलने को कहा पर रमेश टस से मस भी नही हुआ । 
      रोते रोते उसकी आँखे सूज गई थीं । श्मशान की खामोशी और मंद होती चिता की अग्नि ने जब उसे अँधेरे का एहसास कराया तब न चाहते हुए भी रमेश उठा और लड़खड़ाते कदमों से धीरे - धीरे घर लौट आया । रात को बाहर दालान में डली बिछात पर अधमरा सा वह जैसे ही लेटा आसमान में छिटके तारों ने उसकी यादों की पोटली खोल दी । कितनी अलग अलग कहानियां सुनी थी उसने अपनी दादी से इन तारों के बारे में । जितना वह उससे प्रेम करती थीं उतना ही तो इन तारों से भी करती थी। इन्ही तारों में से कोई एक तारा था जो उसके दादाजी थे । दादी कहती थी - मृत्यु के बाद सब तारा बन जाते हैं और हम सबको देखते रहते हैं ।

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