जिंदगी में एक अधूरापन तब आता है जब हमें ये कहने का बहाना मिलता है की "मुझे तो मौका ही नहीं मिला" और फिर उन अधूरे सपनों को किसी ऐसे पर थोप दिया जाता है जिससे हमें बहुत उमीदें हो. ...... उसके सपनों को बिना जाने , बिना पहचाने ..उसकी जिंदगी में भी एक नया अधूरापन भर देते हैं।
सुधरे हुए समाज में रहने का दावा करने वाले संजीव श्रीवास्तव की बेटी ने जब 12 वी पास की, तो वो उमीदों का पहाड़ सर पर उठाए, जमीं पर पैर नहीं रख रहे थे।
- ये लो पिताजी, मिठाई खाओ, आपकी पोती ने टॉप किया है..... संजीव ने अपने पिता से खुश होते हुए कहा
- हाँ, बेटी ब्याहने लायक हो गयी है न अब तो .....हमेशा खामोश रहने वाले आरती के दादा जी ने अपनी जुबान से भयंकर बाण छोड़ते हुए कहा।
- अरे पिताजी, आरती ने 94% के साथ पुरे जिले में सबसे आगे रही है।
शाबाश शाबाश ..... दादा जी ने हाँ में हाँ मिलते हुए कहा।
घर में खुशियों का माहौल था, लोग बधाई देने आ रहे थे, ऐसे में आरती भी शॉपिंग करने चली गयी ...
- आरती ये क्या है, मैंने तुम्हे मना किया था न की, ये सब मत खरीदना, कितने छोटे कपड़े हैं ये ......गावों में ये सब ... मां ने हमेशा की तरह फिर से टोका।
- क्या तुम भी, तुम अनपढ़ की अनपढ़ ही रहोगी, ये मेरी बेटी है ..पढ़-लिख कर डॉ. बनेगी...और तुम छोटी-छोटी बातों पर.... पापा ने कहा।
अपना शौक अब पूरा नहीं करेगी तो कब करेगी.... लोग सिर्फ सवाल करते हैं...... उनसे उलझने की जरूरत नहीं है।
हर बार पापा का सानिध्य पाकर आरती अपने-आपको खुशनसीब समझती।
- पापा जब तक आगे की पढ़ाई शुरू नहीं होती मैं, पेंटिंग ( चित्रकारी ) सीख लेती हूं।
- हाँ हाँ क्यों नहीं बेटा .....छुटियाँ है अपना शौक पूरा करो ... कम से कम अब मेरे चेहरे का भूत तो नहीं बनाएगी .....संजीव ने अपनी बेटी को हंस कर कहा।
आरती के बचपन का शौक, जीवन का नया पड़ाव और सपनों की धुन एक नई उड़ान भरने को तैयार थे
बाहरवीं के बाद आरती का दिल्ली विश्विद्यालय में दाखिला हुआ तो सपनों को मानो पंख लग गए।
इस बार भी स्कूल में टॉप करने वाली आरती, कॉलेज में हमेशा आगे रहती, कोई दोस्त नहीं, सिर्फ पढ़ाई ..आज तक यही तो सीखा था उसने।
फिर एक दिन सब से जान- पहचान हुई ... जब साल अंत में हुए पेंटिंग कम्पीटीशन में आरती ने प्रथम स्थान प्राप्त किया।
- तुम बहुत अच्छी पेंटिंग बनती हो।
- थैंक यू .... जब पहली बार किसी और के मुँह से ऐसा सुनने को मिला तो उसे बहुत अच्छा लगा जो की सव्भाविक ही था।
- तुम्हे और प्रयास करने चाहिए ...आशीष ने कहा।
किसी से तारीफ सुनकर, दिल में दबी इच्छा बाहर निकली, किसी का साथ पाकर आरती को लगने लगा की उसे अपने शौक पूरा करना चाहिए, जिंदगी में फिर से मौका नहीं मिलने वाला।
दोनों अक्सर बैठ कर एक दूसरे की बातों को साझा करते और समझने की कोशिश करते।
वह धीरे-धीरे अपनी पढाई छोड़ कर अपना शौक पूरा करने लगी.... दोस्त उसकी खूब सराहना करते, आरती ने अपने हॉस्टल का कमरा पेंटिंग्स से सजा दिया ... दोस्त देखते और खूब तारीफ करते।
दिन बीतते गए, दूसरा साल भी बीत गया पर अबकी बार आरती ने टॉप नहीं किया तो पिताजी ने समझाया की तुम्हे गोल्ड मेडलिस्ट बनना है ...तुम्हे आगे टॉप करना है।
पिताजी ने कहा की, हमारे पुरे कुनबे में कोई भी पढ़ा-लिखा नहीं है, मैंने थोड़ी बहुत पढ़ाई की है इसलिए तुम्हे पढ़ा रहा हूं ..... तुम्हे पढ़ना चाहिए।
दूसरे साल फिर से कॉलेज कम्पटीशन हुआ, आरती फिर से प्रथम आयी पर इस बार उसने घर बताना उचित नहीं समझा, कॉलेज से मिला मैडल सिर्फ उसके कमरे की शोभा बनकर रह गया।
आरती को लगता था की उससे अगर कोई समझता है तो वो है आशीष ..जिसे वो अपना हमदर्द समझने लगी
सुंदर, सुशील और कामयाबी, कुछ लोगों को नागवार गुजरी.... पर आरती मस्त थी अपनी ही दुनिया मैं.... वो सब कुछ भूल कर बस अपनी पेंटिंग बनाने में लगी रहती.... सपनों की दुनिया और समझने वाला एक साथी पा कर वो वास्तविक दुनिया से दूर होने लगी.....
फिर एक मौका भी आया जब नेशनल आर्ट कम्पीटीशन में उसकी बनाई गई पेंटिंग्स को कॉलेज की तरफ से भेजा गया, आरती ने वहां चौथा स्थान प्राप्त किया।
उसके कमरे की सोभा बढ़ाने के लिए उसे एक और मैडल मिल गया।
धीरे-धीरे जब वो पढ़ाई से दूर होने लगी तो उसे डर सताने लगा की उसकी पढ़ाई का क्या होगा ...वो अब एक पेंटर बनना चाहती थी ...उसके इन सपनों को एक लम्बी उड़ान दी...जब तीसरे साल में nice art की तरफ से नौकरी का ऑफर आया, पर उसने इस बारे में सोचना भी नागवार समझा।
" जिंदगी वास्तव में तब शुरू होती है जब हम सपने देखना शुरू करते हैं और खत्म तब होती है जब हम सपने देखना बंद करते हैं। "फिर एक दिन अचानक आरती के माता पिता का दिल्ली आना हुआ, तो जल्दबाजी में दीवारों पर चिपकाये सारे सपने उतर कर अपने पलंग के नीचे रख दिए .... क्योंकि वो जानती थी की वो यहाँ पेंटर बनने नहीं आई है , डॉक्टर बनने आयी है।
माता पिता के जाने के बाद, जब उसने आकर देखा की उसके कमरे से धुंआ निकल रहा है तो वो बेहोंश हो गयी ...
आरती अब रोने के सिवाय क्या कर सकती थी, मेहनत के जल से संजोये सपनो से जब नींद उखड़ी तो सामने सिर्फ राख को पाया, उसका हर हुनर जो वहां छिपा था खाक हो चुका था।
किसी की कामयाबी किसी को इतनी भी नागवार न गुजरे की उसकी जिंदगी तबाह हो जाये।
आशीष ने साथ दिया, आरती ने फिर से कमरे को सजा दिया .....इसी बीच उसके पास कई जॉब ऑफर आये.... ..पर वो चाहकर भी कुछ नहीं कर सकती थी, वो निर्णय नहीं कर पा रही थी की क्या करे .. किसके सपनो को पूरा करे अपने या अपने पापा के।
वो कभी-कभी सोचती की उसका भविष्य क्या होगा, फिर अनमने ढंग से पढ़ती ...पर नियति को कुछ और ही मंजूर था।
जीवन के नए पड़ाव में उससे लगता की वो जो कर रही है वही सही है,
तीसरे साल में आरती 3 पेपर में फेल हुई तो उसकी आँख खुली ....उसे अंदाजा नहीं था की जिंदगी के अहम पड़ाव पर ऐसा भी होगा, फेल हो जाना कोई बड़ी बात नहीं थी ... वो ये सब कॉलेज में देखती आयी थी, पर बड़ी बात वो उमीदें थी जो हर कोई उससे लगा कर बैठा था।
- आरती तुमने अपनी जिंदगी को बर्बाद कर लिया है .. तुम वहां डॉ. बनने गयी थी ..और अब ..... अगर यही सब कुछ छापना था तो वहां जाने की क्या जरूरत थी।
पुरे गांव में लोग मेरे नाम से बातें करते हैं की मेरी बेटी दिल्ली पढ़ती है .. और मैं गर्व से कहता हूं की मैं बेटा-बेटी में भेदभाव नहीं करता ..मेरी बेटी डॉ. बनेगी ..पर तूने अपनी जिंदगी बर्बाद कर ली है ..पिताजी ने रोते हुए कहा।
आरती ने कभी नहीं सोचा था की उसकी सिर्फ इतनी सी गलती की वजह से उसका परिवार उसके सामने रोयेगा ......... वो जानती थी की उसने अपने सपनो की खातिर अपने पिताजी के सपनों को कहीं खो दिया है।
पर अब समय की लहरें गुजर चुकी थी।
वो समझ नहीं पा रही थी कि क्या ये गलती इतनी बड़ी थी की कोई उसका साथ भी नहीं देगा
वो मन ही मन आशीष को कोसती ....... पर ...... किसलिए .. ..सिर्फ इसलिए की उसने उसको समझा, उसका साथ दिया .........
इस दुनिया में अपरिपकव, अपने सपनों की दुनिया से दूर, आरती सिर्फ रोती तो इसलिए की उसने अपने पिताजी के सपनों को खो दिया।
इसलिए की जिन्होंने हमेसा साथ दिया, आज अपनी गलतियों की वजह से आज वो उसके साथ नहीं है।
वो जानती थी की हमारे समाज में हर कोई हमसे सपने संजोए बैठा है ..वो सिर्फ उन सपनों को पूरा होते देखना चाहते हैं, हम खुद क्या चाहते हैं.... उसे सिर्फ उम्र का एक पड़ाव समझ कर भुला दिया जाता है।
इमोशंस में बह कर आरती ने वायदा किया की अगले एक साल में वो अपनी स्नातक पूरी कर लेगी।
एक बार फिर आरती दिल्ली पहुंची, वही दुनिया, वही हॉस्टल।
आरती के कमरे की सुंदरता को देखते हुए उसे स्टाफ रूम बना दिया गया .....वही पेंटिंग्स फिर से आरती को उसके सपनो की याद दिलाती, उसको याद आते उसके जलते हुए और फिर बिखरते हुए सपने।
उसने अनमने ढंग से पढ़ना शुरू किया ..... पर वो अपने शौक को नहीं भुला सकी।
इसके बाद दिमागी दबाव बढ़ा ..पढ़ाई या पेंटिंग्स , नौकरी या फैमिली , अकेले आगे बड़े या सबको साथ लेकर
हर महीने पिताजी मिलने आते, आरती को ऐसा लगता की वो अब विश्वाश खो चुकी है।
आरती अब अपने ही सपनों की जेल में कैद होकर रह गयी, इच्छा होती की पापा को सब बता दूँ की मैं एक अच्छी पेंटर हूं ...अच्छी जॉब भी मिल रही है ..पर कभी हिम्मत नहीं हुई ... क्योंकि आज तक यही सीखा था की लड़किया सिर्फ बात मानती है।
वो कभी-कभी सोचती की कोई उससे पूछेगा की तुम क्या चाहती हो,उसे समझेगा, कोई साथ देगा , ....... पर नहीं, क्योंकि दुनिया को सिर्फ परिणाम चाहिए।
उसके जीते हुए हर मेडल की तरह उसके अपने सपने भी खाक होने लगे
खुद को सपनों से दूर जाते देख पढाई दुशमन सी लगने लगी, पर अपनों को मुख मोड़ते देख वो जहर का घुट पी लेती।
पुरे गावों में आजादी और पढ़ाई-लिखाई का प्रतीक बनी आरती आज खुद को कोश रही थी.....उसकी गलती सिर्फ इतनी थी की सभी ने उसके लिए सपने संजोये, पर वो पूरा नहीं कर पायी।
पर... इस बार उसने हिम्मत की, आखरी बार अपने पापा को सबकुछ बताने की ठानी।
पिताजी ,
मैं जानती हूं की मैंने उन सपनों की कोई कदर नहीं की जो आपने मेरे लिए संजोए थे .. मैं नहीं जानती की दुनिया मेरे बारे में क्या सोचती है ..पर मैं जानती हूं की आप क्या सोचते हो।
..आपकी नारजगी मेरा दम घोट देती है ..पर मैं अब आपसे डरती हूं ...मैं अब वो बच्ची नहीं रही जब मैं आपको सुब-कुछ बता देती थी ..आज मैंने किसके बैग से टॉफी चुराई और आप हंस कर टाल देते थे।
मैं बड़ी हुई .... अपने सपनों के साथ ...आपने मुझे आजादी दी की मैं एक डॉ. बनूं .... मेरे पास किसी चीज की कोई कमी नहीं थी, मैं नहीं समझ सकती की ये कैसी अधूरी आजादी है जिसमे मैं खुद "मैं" नहीं हूं।
मैं हार तब नहीं जाती जब किसी की मुझसे की गयी उम्मीद टूट जाती है, पर मैं तब हार जाती हूं जब खुद मेरी उम्मीद टूट जाती है।
दो साल पहले नेशनल कम्पीटीशन में चौथा पदक मिला था, चार कंपनी ने मुझे जॉब ऑफर की, पर मैंने एक बार भी नहीं सोचा की जॉब करू।
मैं वो सब करना चाहती हूं जिससे आप खुश हो, पर क्या ये सब इस कीमत पर की मैं खुद के सपनों को भूल जाऊँ, शायद मैं ऐसा नहीं कर पाऊँ।
मैं बस जीना चाहती थी ..अपने सपनों के साथ
By Subhash Verma
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