अहिन्दी भाषी क्षेत्र गुजरात के सुरेंद्र नगर में यदि किसी साहित्यकार और सम्पादक का नाम ससम्मान और प्रमुखता से लिया जाता है तो वे हैं - श्री पंकज त्रिवेदी जी ।
वे गुजराती बहुल क्षेत्र में हिन्दी का परचम लहराते हुए हिन्दी साहित्य की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाने वाली त्रैमासिक पत्रिका विश्वगाथा का प्रकाशन तो करते ही हैं , साथ ही अनवरत सृजन एवं प्रकाशन भी करते हैं ।
राजस्थान पत्रिका से पत्रकारिता और विभिन्न राष्ट्रीय पत्र - पत्रिकाओं में स्तम्भ लेखन के साथ ही उन्हें कहानी , कविता ,लघुकथा ,निबंध , रेखाचित्र और उपन्यास लेखन में भी प्रवीणता प्राप्त है। अलावा इसके अनेक सम्मानों से सम्मानित श्री त्रिवेदी की रचनाओं का आकाशवाणी और दूरदर्शन पर भी निरंतर प्रसारण होता रहता है।
अभी हाल ही में शिक्षाविद श्री पंकज त्रिवेदी का निबंध संग्रह - " मन कितना वीतरागी " मुझे प्राप्त हुआ है।
अचंभित हूँ आज के इस दौर में जब निबंध लेखन विधा लगभग गौण होती जा रही है , ऐसे में उनके चिंतनात्मक 130 लघु निबंध पाठकों के मन में आशा जगाते हैं ।
इस विधा को लगभग गौण होना मैंने इसलिए कहा क्योंकि अब केवल पाठ्यक्रमों में ही पुराने निबंध लेखन शेष रह गए हैं । इसीलिए भी श्री त्रिवेदी जी के ये निबंध मुझे विशेष प्रिय लगे । यहां मैं निबंधों का इतिहास या ख्यात निबन्धकारों का जिक्र या तुलना नहीं करना चाहता क्योंकि हर तरह का लेखन समयानुसार और लेखक की अनुभूतियों पर केंद्रित होता है। इसमें मैं पंकज जी को खरा पाता हूँ और उन्हें इस विधा को जीवंतता देने के लिए बधाई भी देता हूँ ।
अब बात उनके निबंध संग्रह - " मन कितना वीतरागी की " , जिसमें शामिल उनके 130 निबंधों में उन्होंने हर विषय और उनके पहलुओं पर प्रभावी लेखन किया है।
संग्रह की भूमिका में श्री रस्तोगी जी ने इस पुस्तक को महान चिंतक अज्ञेय जी के दर्शन शास्त्र से कम नहीं आंका है , इस पर में टिप्पणी नहीं करना चाहता । यह उनका श्री त्रिवेदी जी के लिए विशेष अनुराग लगता है । हां , श्री रस्तोगी जी के इस कथन से में पूरी तरह से सहमत हूँ -
" लेखक का चिन्तन जीवन के संघर्ष से भी प्रेरित होकर उनका साहसिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। अपने अहित की परवाह न करते हुए व्याप्त विसंगतियों से जूझने को सदैव तैयार रहता है। यही कारण है वे आदर्श प्रस्तुत करते हुए विलक्षणता प्राप्त करते हैं । "
अपनी निबंध यात्रा के संदर्भ में पंकज जी का आत्मकथ्य प्रेऱक और निबंध लेखन को विविधता पूर्वक परिभाषित करते हुए अत्यंत महत्वपूर्ण है।
उनका यह कहना कि - " यह निबंध ही है जो मुझे अपने साथ यात्रा करवाता है...और मैं उसी यात्रा से अनवरत अपने भीतर की यात्रा का मुसाफिर बन जाता हूँ । तब पता ही नहीं चलता है कि निबंध ने मुझे अपना लिया है या मैं खुद निबंध में घुल - मिल गया हूँ । " सार्थक और सत्य प्रतीत होता है ।
जब किसी लेखक को यह एहसास होने लगता है तब समझ लेना चाहिए कि उसका लेखन ( चाहे वह किसी भी विधा में हो ) पूर्णता पा रहा है और वह समाज का दर्पण बनने को तैयार है। इसे मैं इस संग्रह को पढ़ने के बाद सहर्ष स्वीकारते हुए कह सकता हूँ ।
इस निबंध संग्रह की एक बात और मुझे प्रभावित कर गई । वह यह कि - आपको निबंध की नई पारिभाषिक जानकारी , जो पंकज जी के मन के उद्गार भी हैं , मिल जाती है जिससे निबंधों को समझना और आसान हो जाता है।
दरअसल निबंध की उतपत्ति दो शब्दों के विग्रह से हुई है - नि और बंध । अर्थात जो नियमो में बंधकर लिखा जाए , वह निबंध । इसमें लालित्य और तथ्यों के साथ बोलचाल की भाषा ही प्रमुख होती है। कम शब्दों में इनका समायोजन ही निबंध की गुणवत्ता और श्रेष्ठता सिद्ध करता है ।
निबंध लेखन के ये सभी तत्त्व - " मन कितना वीतरागी " - में मुझे मौजूद नजर आए , जिसके लिए पंकज त्रिवेदी जी बधाई के पात्र हैं ।
विश्वगाथा प्रकाशन , सुरेंद्र नगर , गुजरात का यह निबंध संग्रह मात्र दो सौ रुपए की कीमत अदा कर हर विज्ञ पाठक को पढ़ना चाहिए और नई पीढ़ी को भी पढ़ाना चाहिए ।
अंत में सिर्फ यह कहना चाहता हूँ - यहां मैं संग्रह में प्रकाशित 130 निबंधों को अलग से व्याख्यायित नहीं करते हुए , उन्हें आपको स्वयं पढ़ने के लिए प्रेरित करना चाहता हूँ ।
जानता हूँ , लिखने - पढ़ने और समझने में उम्र का कोई बंधन नही होता । इन निबंधों को पढ़कर मुझे भी बहुत कुछ नया सीखने और समझने का सुयोग बना । आप भी इन्हें पढ़ें भी और गुनें भी , हमारी यही सहभागिता इस निबंध संग्रह को समाज का दर्पण बनाएगी।
- देवेन्द्र सोनी , इटारसी।
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