रविवार, 24 जून 2018

समीक्षा - निबंध को जीवंतता प्रदान करता है पंकज त्रिवेदी का संग्रह - मन कितना वीतरागी



       अहिन्दी भाषी क्षेत्र गुजरात के सुरेंद्र नगर में यदि किसी साहित्यकार और सम्पादक का नाम ससम्मान और प्रमुखता से लिया जाता है तो वे हैं - श्री पंकज त्रिवेदी जी । 
        वे गुजराती बहुल क्षेत्र में हिन्दी का परचम लहराते हुए हिन्दी साहित्य की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाने वाली त्रैमासिक पत्रिका विश्वगाथा का प्रकाशन तो करते ही हैं , साथ ही अनवरत सृजन एवं प्रकाशन भी करते हैं । 
        राजस्थान पत्रिका से पत्रकारिता और विभिन्न राष्ट्रीय पत्र - पत्रिकाओं में स्तम्भ लेखन के साथ ही उन्हें कहानी , कविता ,लघुकथा ,निबंध , रेखाचित्र और उपन्यास लेखन में भी प्रवीणता प्राप्त है। अलावा इसके अनेक सम्मानों से सम्मानित श्री त्रिवेदी की रचनाओं का आकाशवाणी और दूरदर्शन पर भी निरंतर प्रसारण होता रहता है। 
       अभी हाल ही में शिक्षाविद श्री पंकज त्रिवेदी का निबंध संग्रह - " मन कितना वीतरागी " मुझे प्राप्त हुआ है। 
      अचंभित हूँ आज के इस दौर में जब निबंध लेखन विधा लगभग गौण होती जा रही है , ऐसे में उनके चिंतनात्मक 130 लघु निबंध पाठकों के मन में आशा जगाते हैं ।

Hit Like If You Like The Post.....


Share On Google.....

शनिवार, 9 जून 2018

'बेबस बेटी'



जाती है दुल्हन थापे घृत के मायके में लगाये,ससुराल की दहलीज लांगती है ससुरालीजनों से 
अपनों सी आश लगाये,
होता है जब उसी जगह दुर्व्यवहार उस से तो मायके की प्रीत रह-रह के रुलाये,

पौंछती है नीर सोच के शायद मिले कभी प्यार उनसे जिनसे मैंने ह्रदय के है धीर लगाये,
आज नहीं तो कल हो जायेंगे ये मेरे अपने, हे ! ईश, दिन जल्दी से वो आये,

लाऊँगी मैं अनुराग सभी में इतना कि कोप,कपट गैर की भावना ऐसे जाए 
कि भूले से भी फिर आने की सोच न लाये,

धर्म मेरा,कर्तव्य मेरा, विनोद में सबको जोडूं,ननद-देबर की दूजी माँ, भाभी माँ मैं 
और सास-ससुर मात-पिता से मेरे,
ससुराल का घर मेरा ये प्रेम में हो ऐसे सराबोर कि
 साक्षात कान्हा जी का ये मंदिर बन जाये,

मैं न शब्द कोई मुँह से निकालूंगी चाहे कितने भी घात तन को छलनी कर जाये,
सहूँगी मैं तब तक जब तक प्राण न निकल जाये 
क्यूँकि माँ-पापा ने सिखाया था मुझे कि बेटी, मायके से डोली में विदा हुई 
तू ससुराल से विदाई एक ही बार हो कि अर्थी में तू जाये
 लेकिन कभी न तू ऐसा कुछ करना कि मायके की लाज जाये,

हाँथ जोड़ मैं विनती हूँ करती आपसे(ससुरालीजन) मैं पूरी करूँगी आपकी हर माँग 
अपनी देह को दांव पर लगाये.... पर,
 दहेज की खातिर मुझे जलाकर मेरे मात-पिता को जीते जी ना मारिये,
आपको दहेज देने को मेरी माँ ने अपने जेवर गिरवीं थे 
तब रखवाये और आज भी पूरी कर रहे है माँग आपकी मेरे तात जो अब अपने घर-द्वार चुके हैं लुटाये,

मैं बेटी हूँ किसी लाचार माँ और असहाय बाप की तो आपके घर में भी है एक बेटी 
देख उसका मुख मेरे प्रति भी अपनी भावनाओं को क्यूँ न आप जगाये...?

निर्बल हो चुकी हूँ मैं आज तो और भी ज्यादा 
जिस सुयोग्य वर को ढूंढने में मेरे पिता के पैरों ने काटें खाये 
आज उसी ने मेरी रक्षा में न हाँथ उठाये,

थक-हार चुकी हूँ मैं, अब यातनाओं और याचनाओं से नहीं रुकती है
 गर अब आपकी प्रताड़ना तो बेशक मेरे खात्मे को अब लो कदम उठाये
 मगर अब मैं और नहीं करने दूँगी पिता को अपने दहेज की भरपाई...
लगा दो आग मुझे,मेरे बाद फिर और किसी की बेटी को,
जारी रख इस घटनाक्रम को यूँ कर देना जड़ से खत्म हमें, 
ताकि फिर कोई और ना इस धरा पर बेटी आये,

मात-पिता की चिंता 'एक बेटी' की वजह से उनकी चिता बन जाये 
ऐसी बेटी से तो अच्छा है दुनिया की हर बेटी मर जाये......
अब और ना इस धरा पर कोई बेटी आये अब और ना इस धरा पर कोई बेटी आये।

After a long time, I publish here my poetry...Plz must read...🙏
Ritika(preeti{preet}samadhiya.....
Please Try To Be A Good Human Being...✍

Hit Like If You Like The Post.....


Share On Google.....

ब्लॉग आर्काइव

Popular Posts